दोहे chapter 2 nios 10th class

पिछले पाठ में आपने एक कहानी पढ़ी। इस पाठ में हम दोहे को पढ़ेंगे जो कि हिंदी का एक प्रमुख छंद है। कबीर, रहीम, वृंद आदि मध्यकालीन हिंदी कवियों ने अपनी कविताओं में ज्यादातर इसी छंद का प्रयोग किया है। प्रायः दोहों के विषय भक्ति, शृंगार और नीति के रहे हैं। इस पाठ में हम कबीर, रहीम और वृंद के नीति या उपदेशपरक दोहों का अध्ययन करेंगे।

उद्देश्य

इस पाठ को पढ़ने के बाद आप

  • व्यक्तित्व-निर्माण में निंदा और आलोचना की भूमिका का उल्लेख कर सकेंगे;
  • बड़ों द्वारा किए गए कठोर व्यवहार के सकारात्मक पक्ष को स्पष्ट कर सकेंगे;
  • अनावश्यक धन से उत्पन्न विकृतियों को समझकर धन की उपयोगिता पर टिप्पणी कर सकेंगे;
  • अवसरानुकूल व्यवहार के औचित्य का वर्णन कर सकेंगे;
  • जीवन में अभ्यास का महत्त्व रेखांकित कर सकेंगे; दोहा छंद को पहचान कर उनके प्रयोग के बारे में व्याख्या कर सकेंगे;
  • दोहों के काव्य-सौंदर्य पर टिप्पणी कर सकेंगे; समान भाव के दोहों की तुलना कर सकेंगे और उनका अवसरानुकूल प्रयोग कर सकेंगे।

दोहे

ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँच न होइ । सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदै सोइ

निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय । बिन पानी साबुन बिना, निरमल करत सुभाय

गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि कालै खोट । अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट

जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम दोऊ हाथ उलीचिए, यही सयानो काम

कबीर

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधै मौन । अब दादुर बक्ता भए, हमको पूछत कौन ।। 5 ।।

खैर, खून, खाँसी, खुसी, वैर, प्रीति, मदपान। रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान ।। 6 ।।

रहीम

करत-करत अभ्यास तें, जड़मति होत सुजान । रसरी आवत-जात तें, सिल पर परत निसान ।। 7।।

नैना देत बताय सब, हिय को हेत-अहेत। जैसे निरमल आरसी, भली-बुरी कहि देत ।। 8।।

-वृंद

दोहा-1 

आइए, कबीरदास का प्रथम दोहा एक बार फिर पढ़ लेते हैं। कबीर कहते हैं कि अगर अच्छे घर-खानदान में पैदा हुए व्यक्ति का व्यवहार और उसके कर्म अच्छे न हों, तो वह उसी प्रकार निंदा का पात्र होता है, जिस प्रकार शराब भरे सोने के कलश को सज्जन निंदनीय समझते हैं। कहने  का मतलब है कि जिस प्रकार सोने का घड़ा भी अपने अंदर शराब जैसी वस्तु भरी होने के कारण अपनी महत्ता खो देता है और बुराई का पात्र बनता है, उसी प्रकार अच्छे कुल या परिवार में जन्म लेने वाले व्यक्ति का आचरण अगर अच्छा न हो, तो वह भी लोगों की तारीफ का नहीं, बल्कि निंदा का पात्र बन जाता है।

इस दोहे में कवि ने बताया है कि आदमी की पहचान उसके घर-खानदान से, उसके वर्ण और जाति से, उसके धनवान और निर्धन होने से नहीं, बल्कि उसके आचरण, उसके व्यवहार और चाल-चलन से होती है। अच्छे कर्म करने वाले व्यक्ति की प्रशंसा की जाती है और बुरे कर्म करने वाले की निंदा होती है।

मनुष्य का तन सोने के घड़े जैसा है। ऐसा तन पाकर उसमें अच्छाई का विकास करने की जगह उसे बुराइयों का घर बनाना किसी भी तरह प्रशंसा की बात नहीं हो सकती।

बहुत आसान तरीके से अच्छे कर्म करने की बात कही गई है।

दोहा-2

 आइए दूसरा दोहा फिर से पढ़ लें।

आपने अनुभव किया होगा कि अधिकतर लोगों को अपनी प्रशंसा बहुत अच्छी लगती है, जबकि अपनी आलोचना करने वालों को कोई पसंद नहीं करता। यों भी समाज में ऐसे लोग तो अक्सर मिल जाते हैं, जो मुँह पर तारीफ करते हैं

और पीठ-पीछे निंदा। मगर, ऐसे

बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, जो सामने ही हमारी आलोचना करें, हमारी कमियाँ बताएँ । प्रायः हम ऐसे लोगों से मिलने से कतराते हैं, उन्हें पसंद नहीं करते। कबीर ने ऐसे आलोचकों से बचने की नहीं, बल्कि उनको अपने नज़दीक रखने की आवश्यकता पर बल दिया है। वे कहते हैं कि निंदक को तो आँगन में कुटी बनवाकर अपने पास ही रखना चाहिए, निंदा से हमें अपनी कमियों का पता चलता है और हम उन्हें दूर कर लेते हैं। इस प्रकार, साबुन और पानी के बिना ही वे हमारे स्वभाव को निर्मल बना देते हैं।

अब ज़रा सोचिए कि आदमी अपना शरीर तो साबुन-पानी से साफ कर लेता है, पर वह अपने व्यवहार, आदतों और स्वभाव की कमियों और बुराइयों से कैसे छुटकारा पाए? आदमी को अपनी कमियाँ, कमजोरियाँ, बुराइयाँ खुद तो दिखती नहीं। दूसरे लोग आम तौर पर उसके सामने इनका उल्लेख नहीं करते । केवल आलोचक ही हैं, जिनसे हमें पता चलता है कि हममें कहाँ और क्या कमी है? तो फिर उनसे कतराएँ क्यों? क्यों न उनकी सुनें, जिससे हमें अपनी कमियों का पता चले और हम उनको दूर करने का प्रयास करें और अपने स्वभाव को निर्मल बनाएँ। इस दोहे में कबीर हमसे यही कहना चाहते हैं।


दोहा-3

 आइए, तीसरा दोहा एक बार फिर पढ़ लेते हैं। हमेशा से एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को अपना अनुभव और ज्ञान सौंपती आ रही है। ज्ञान देने वाले व्यक्ति को गुरु कहते हैं अर्थात् गुरु वह होता है, जो ज्ञान दे, ज्ञान को धारण करने लायक बनाए, जो चरित्र-निर्माण करे और बेहतर मनुष्य बनाए। कबीर ने अपने इस दोहे में गुरु-शिष्य संबंध और गुरु के कार्य के विषय में बताया है। जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाता है, उसी प्रकार गुरु शिष्य को तैयार करता है। आपने कुम्हार को घड़ा बनाते देखा है? अगर नहीं, तो चित्र 2.3 को ध्यानपूर्वक देखिए। वह चाक पर गीली मिट्टी रखता है और चाक को घुमाता है। बीच-बीच में हाथ से मिट्टी के उस लोंदे को आकृति देता जाता है। जैसे-जैसे यह आकृति स्पष्ट होती है

और उसका आकार बढ़ता है, वैसे-वैसे उसे सँभालने के लिए विशेष प्रयत्न करना होता है, वरना आकृति बिगड़ सकती है। घड़ा बना चुकने पर जब वह उसे चाक से उतारता है, तो घुमा-घुमा कर उसकी कमियों को परखता है। अक्सर कहीं-कहीं मिट्टी के बीच हवा आ जाने से छेद रह जाते हैं। वह उन्हें देखता है और ढूँढ-ढूँढ कर निकालता है, उन्हें दूर करता है। वह भीतर की तरफ से हाथ का सहारा देता जाता है, ताकि घड़ा

टूट न जाए और बाहर की तरफ़ से थपकी से चोट करता जाता है। तब कहीं जाकर एक सुंदर और दोष-रहित घड़ा तैयार होता है। प्रस्तुत दोहे में कबीर कहते हैं कि गुरु कुम्हार है और उसकी रचना यानी उसका शिष्य घड़ा है। शिष्य को तैयार करते हुए गुरु उसकी खामियों, उसके दोषों को दूर करता जाता है। ‘काढ़ना’ का अर्थ निकालना होता है (जैसे-दूध काढ़ना)। ऐसा करते हुए वह अपने शिष्य को भीतर-भीतर तो सहारा देता है यानी आंतरिक रूप से स्नेह देता है, पर बाहर से ठोकता चलता है। कहने का अर्थ है कि गुरु का व्यवहार ऊपर से तो कठोर लगता है, पर आंतरिक रूप से बड़ा स्नेहपूर्ण होता है।

वह अपने शिष्य की तमाम कमियों और कमजोरियों को अपने कठोर नियंत्रण से दूर कर देता है और उसे ज्ञान देने के साथ-साथ आत्मिक चारित्रिक रूप से भी दृढ़ बना देता है। ‘गढ़ना’ शब्द का अर्थ सिर्फ बनाना नहीं होता, बल्कि पूरी आत्मीयता से दोषरहित कृति तैयार करना होता है-जैसे अच्छा मूर्तिकार मूर्ति गढ़ता है, तो उसे सजीव और जीवंत बना देता है; सुनार आभूषण में कलात्मक सौंदर्य उभारता है। इसीलिए यहाँ कवि ने गुरु द्वारा शिष्य को गढ़ने की बात कही है। अच्छा गुरु शिष्य को कोरा ज्ञान ही नहीं देता, बल्कि उसे समाज और दुनिया के लिए एक बेहतर इंसान के रूप में तैयार करता है | यहाँ ज्ञानवान बनाने के साथ-साथ चरित्रवान बनाने का भी संकेत है। जैसे घड़े में अगर नन्हे-नन्हे छेद रह जाएँ, तो उससे पानी रिसेगा और उसकी उपयोगिता कम या समाप्त हो जाएगी, वैसे ही ज्ञान अगर आचरण या व्यवहार पर खरा नहीं उतरेगा, तो उसकी भी सामाजिक उपयोगिता नहीं रहेगी।

दोहा-4

कबीर का चौथा दोहा फिर पढ़ लेते हैं।

आप अक्सर सोचते होंगे कि अगर हमारे पास अपार दौलत होती, तो कितना मज़ा होता! क्या कभी यह भी सोचा है कि धन हमेशा ही फायदेमंद नहीं होता । वह अपने साथ बहुत सी बुराइयाँ भी लाता है। अगर किसी के पास बहुत-सा पैसा हो, तो वह क्या करेगा? ज़ाहिर है कि वह पहले अपनी ज़रूरतों को पूरा करेगा, फिर अपने लिए सुविधाएँ जुटाएगा, फिर भोग-विलास और फिर बुरे शौकों (व्यसनों) को पूरा करने लगेगा। यानी, धन एक हद तक तो ज़रूरतों को पूरा करता है, लेकिन ज्यादा पैसा होने पर आदमी सुख-सुविधा में फँसता है, केवल अपना फायदा देखता है और विलासी बन जाता है। | कबीर ने धन की अधिकता होने पर उससे छुटकारा पाने की या उसे दान कर देने की बात कही है। उन्होंने नाव में पानी भरने से इसकी तुलना की है। उनके अनसार जैसे नाव में पानी भरने पर यदि पानी को बाहर न निकाला जाए, तो नाव का डूबना तय है, वैसे ही धन की अधिकता होने पर यदि दान करके उसे ख़र्च न किया जाए, तो व्यक्ति का पतन भी निश्चित है।

इस दोहे में कबीर कहते हैं कि यदि नाव में पानी भरने लगे और घर में पैसे की अधिकता होने लगे, तो समझदारी इसी में है कि दोनों हाथों से उलीचना शुरू कर दीजिए | नाव में पानी बढ़ने पर उसका डूबना निश्चित है, इसलिए जैसे ही पानी भरने लगता है, नाविक उसे दोनों हथेलियाँ मिलाकर (अंजुरी बनाकर) बाहर फेंकने लगता है। इसी तरह, यदि घर के अंदर आवश्यकता से अधिक पैसा बढ़ने लगे, तो समझदार व्यक्ति को अंजुरी भर-भर कर उसे बाहर कर देना चाहिए अर्थात् दान कर देना चाहिए, क्योंकि धन की अधिकता अपने साथ ऐसी विकृतियाँ लेकर आती है, जिससे घर का विनाश होना निश्चित होता है।

दोहा-5

आइए, पाँचवें दोहे को ठीक से समझने के लिए उसे एक बार फिर से पढ़ लेते हैं। यह दोहा रहीम का लिखा हुआ है। आपको पता होगा कि एक वर्ष में छह ऋतुएँ होती हैं। इनके नाम हैं- ग्रीष्म (गरमी), पावस (वर्षा), शरद (हल्की सरदी) शिशिर, (तेज़ सरदी) हेमंत (पतझड़) और वसंत । आपने वसंत में कोयल की कूक और वर्षा में मेंढक की टर्र-टर्र की आवाजें तो सुनी ही होंगी। जाहिर है कि कोयल की कूक सभी को भाती है। उसके स्वर में मिठास होती है और गायन में लय । आपने प्रायः एक बार में एक ही कोयल का स्वर सुना होगा, सामूहिक स्वर नहीं। दूसरी तरफ, मेंढक एक साथ टर्राते हैं, उनका टर्राना सुनने में बड़ा ही अरुचिकर लगता है | उस शोर में और सभी आवाजें दब-सी जाती हैं। इसी आधार पर कवि ने कोयल को ज्ञानवान व्यक्ति के प्रतीक के रूप में और मेंढक को शोर-शराबा करके ध्यान खींचने वालों के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है।

आइए, अब इस दोहे का अर्थ-सौंदर्य देखें।

रहीम कहते हैं कि पावस अर्थात् वर्षा ऋतु के आने पर कोयल अपने मन में यह विचार करके मौन साध लेती है कि अब तो मेंढक वक्ता हो गए हैं (जानकारी न रखते हुए भी बढ़-चढ़कर बात करने लगे हैं), अब हमें कौन पूछेगा अर्थात् अब हमारी कद्र कौन करेगा?

तात्पर्य यह है कि जब कम जानकार या अज्ञानी लोग बढ़-चढ़ कर बातें करते हुए महत्त्व पाने लगते हैं, तब ज्ञानी लोग मौन धारण कर लेते हैं; क्योंकि उनका स्वर इस शोर-शराबे में दबकर रह जाता है और न सुने जाने के कारण उनकी बात का उचित प्रभाव नहीं पड़ता।

lअब सवाल उठता है कि क्या रहीम यह कहना चाहते हैं कि मूर्यों के बढ़-चढ़ कर बोलने पर विद्वान को ज्ञानपूर्ण बातें नहीं करनी चाहिए? नहीं, ऐसा नहीं है। गौर करें, पावस देखकर कोयल के मौन साधने की बात कही गई है, हमेशा के लिए नहीं। जब ऋतु बदलेगी, तो मेंढकों का टर्राना बंद हो जाएगा, फिर वसंत ऋतु आएगी और कोयल फिर पंचम स्वर में संदेश देगी। मतलब साफ है- विद्वान का मौन सिर्फ उतने समय के लिए होता है, जितने समय तक शोर-शराबा हो. बढ-चढकर मर्खतापर्ण बातें हों। अनकल अवसर मिलते ही विद्वान को फिर ज्ञान और मानव-कल्याण की बातें कहनी चाहिए। इससे यह भी पता लगता है कि विद्वान अनुकूल अवसर पर ही अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करता है।

दोहा-6

आइए, छठा दोहा ध्यान से पढ़ लेते हैं और इसे समझने का प्रयास करते हैं। इसमें सात चीज़ों या बातों का उल्लेख है। खैर यानी कत्था, खून, खाँसी, खुशी, वैर यानी दुश्मनी, प्रीति अर्थात् प्रेम और मद-पान यानी नशीली चीज़ का सेवन । रहीम कहते हैं कि ये सातों दबाने से नहीं दबते यानी उभर ही आते हैं। कहने का अर्थ है कि सारी दुनिया जानती है कि इन सातों को छिपाया नहीं जा सकता। ये सभी बातें समय आने पर प्रकट हो ही जाती हैं।

खैर यानी कत्था पान में प्रयोग किया जाता है और होठों को लाल करके अपनी उपस्थिति प्रकट कर देता है। ऐसे ही खून भी अपने रंग को ऐसा छोड़ देता है कि उसे छिपाना संभव नहीं होता। ये तो आप जानते ही हैं कि खाँसी को भी दबाया नहीं जा सकता।

आपने ऐसे लोगों को तो देखा ही होगा जिनकी आपस में नहीं बनती और मौका पाते ही वे एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाने से नहीं चूकते। इसी को वैर कहते हैं। ऐसे लोग जब एक दूसरे के सामने आते हैं, तो उनका हाव-भाव और व्यवहार सभी के सामने उनके संबंधों को स्पष्ट कर देता है।

इसी तरह, किसी के प्रति प्रेम का भाव भी आँखों की चमक, बोलने के तरीके और व्यवहार से प्रकट हो जाता है।

आपने नशेड़ियों या शराबियों को देखा होगा। उन्हें देखते ही आपको पता लग जाता है कि इस आदमी ने ज़रूर शराब पी रखी है। उसकी चाल-ढाल, उसका बोलने का तरीका अपने आप शराब पीने की बात ज़ाहिर कर देता है।

इस तरह आपने देखा कि जिन सात बातों की चर्चा इस दोहे में की गई है, वे स्वयं ही अपने आपको व्यक्त कर देती हैं। उन्हें छिपाया नहीं जा सकता।

आपने दैनिक भाषा-व्यवहार में ध्यान दिया होगा कि किसी बात पर बल देने के लिए यह कहा जाता है-‘अरे, भई! सारी दुनिया इस बात को जानती है’ या ‘हर कोई यह जानता है’ या ‘कौन इस बात को नहीं जानता’ अथवा ‘सभी जानते हैं’ या ‘सबको पता है जी’ …..आदि-आदि। ‘जानत सकल जहान’ ऐसा ही प्रयोग है।

दोहा-7

आगे बढ़ने से पहले एक प्रसिद्ध कवि वृंद का दोहा फिर से पढ़ लेते हैं।

आप देख रहे हैं न कि इस दोहे में कुछ ख़ास बात कही गई है! इसमें कुछ करने पर बल दिया गया है! क्या करने पर? जी, हाँ! अभ्यास करने पर बल दिया गया है | क्या करने पर? जी हाँ अभ्यास करने पर | यह अभ्यास क्या होता है, जानते हैं? कहाँ-कहाँ आपने यह शब्द पढ़ा या सुना है, याद कीजिए । अभ्यास, रियाज़ अब कुछ याद आया? हाँ, संगीत में, खेल में

आपको पता होगा कि संगीत सीखने वाले ही नहीं, बल्कि संगीत के बड़े-बड़े पंडित और उस्ताद भी रोज़ाना रियाज़ करते हैं। रियाज़ का अर्थ अभ्यास ही होता है। आपने बड़े संगीतज्ञों का साक्षात्कार या भेंटवार्ता/इंटरव्यू सुना या पढ़ा होगा। वे बताते हैं कि वे दिन में दस से बारह घंटे तक रियाज़ (अभ्यास) करते थे। नए सीखने वालों को भी वे अभ्यास पर अधिक समय देने की सलाह देते हैं। इसी तरह आपने खिलाड़ियों को

भी देखा होगा कि वे प्रतिदिन कई घंटे का समय अपने खेल के अभ्यास पर खर्च करते हैं। आपने समाचारों में भी देखा-सुना होगा कि किसी भी मैच से पहले पूरी टीम एक बार अभ्यास करती है। आपको शायद यह भी पता हो कि वकील और डॉक्टर तो अपने पूरे के पूरे काम को ही प्रैक्टिस (अभ्यास) कहते हैं।

आइए, इस दोहे के भाव को समझने से पहले कुछ और बातें जान लें । इस दोहे में कवि ने कहा है कि अभ्यास करते-करते यानी, निरंतरअभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी ज्ञानवान बन जाता है। कवि ने मूर्ख के लिए ‘जड़मति’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘जड़’ का एक तो आम अर्थ है-किसी भी पेड़-पौधे का वह हिस्सा जो जमीन के भीतर होता है और जिसके द्वारा उसे खाद-पानी मिलता है। आप जड़ और चेतन  पदार्थ के इन दो भेदों के बारे में जानते हैं : जड़- वे पदार्थ जिनके अंदर जीवन के तत्त्व नहीं होते, साधारणतः जिनमें खुद बढ़ने और हिलने-डुलने की शक्ति नहीं होती। चेतन- वे पदार्थ, जिनमें जीवन के तत्त्व होते हैं, जिनमें बढ़ने और हिलने-डुलने की शक्ति होती है।

तो ‘जड़’ का अर्थ है ठहरा हुआ, रुका हुआ, धड़कनरहित, बेजान । ‘मति’ बुद्धि को कहते हैं। अतः जड़मति का अर्थ हुआ जिसकी बुद्धि का विकास न हुआ हो या जो मूर्ख हो। आम भाषा में इसके लिए ‘ठस दिमाग’ का भी प्रयोग करते हैं | आमतौर पर ऐसे व्यक्ति को मूर्ख कहते हैं। सुजान भी आप जानते ही हैं- चतुर, बुद्धिमान, विद्वान।

चलिए, अब आपको हम थोड़ा पहले के समय तक ले चलते हैं | आपने कुआँ देखा है? हाँ, ठीक है, आज इनका बहुत कम प्रयोग होता है, पर पहले पानी की ज़रूरत को कुएँ ही पूरा करते थे। एक बाल्टी या घड़ा लिया, उसमें रस्सी बाँधी और कुएँ में लटकाकर ढील देते गए। तल तक पहुँचने पर दो-तीन बार रस्सी को ऊपर-नीचे झटका दिया, बाल्टी में पानी भर गया। अब उसे ऊपर खींच लिया । आपने ऐसा करके या ऐसा होते हुए देखा है कभी? देखा है? वह तो नहीं, जिसमें रस्सी के नीचे ऊपर जाने-आने के लिए

घिरनी लगी होती है? घिरनी तो बाद में लगने लगी। उससे पहले कुएँ के चारों तरफ़ पत्थर का फर्श बना होता था और रस्सी के इसी पत्थर पर रगड़ खाने से पत्थर पर उतने हिस्से में गहरा गड्ढा बन जाता था।

पत्थर के लिए संस्कृत शब्द ‘शिला’ है, जिससे हिंदी में ‘सिल’ शब्द बना है।

अब इस दोहे के भाव और संदेश को हम आसानी से समझ सकते हैं :

कवि कहता है कि निरंतर अभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी चतुर और ज्ञानवान बन जाता है; ठीक उसी तरह, जैसे रस्सी के निरंतर आने-जाने से पत्थर पर उसका निशान बन जाता है। इसीलिए, किसी भी काम में सफलता पाने के लिए अभ्यास करना ज़रूरी

दोहा-8 

आइए, कवि वृंद का अगला दोहा फिर से ध्यानपूर्वक पढ़ लेते हैं। इस दोहे में एक शब्द आया है- ‘आरसी’ । ‘आरसी’ किसे कहते हैं, पता है? आरसी का अर्थ है- शीशा या आईना। आरसी एक आभूषण का भी नाम है, जिसे स्त्रियाँ अँगूठे में पहना करती थीं। इसमें एक शीशा (आईना) लगा होता था। अपने साज-सिंगार के लिए और अपने चेहरे को देखने के लिए इसका उपयोग किया जाता था। निर्मल यानी साफ-सुथरी आरसी वास्तव में रूप-रंग या साज-सिंगार के अच्छे या बुरे होने को प्रकट कर देती है। आप शीशा देखते हैं। क्या करता है वह, यही न कि जो जैसा है- अच्छा या बुरा, उसे प्रतिबिंबित कर देता है, बता देता है। तब, इस दोहे का अर्थ हुआ कि आदमी के नयन यानी उसकी आँखें उसके हृदय में विद्यमान हित या अहित के भाव को पूरी तरह व्यक्त कर देती हैं । ठीक उसी तरह जैसे स्वच्छ आरसी भले या बुरे रूप-रंग को व्यक्त कर देती है। अर्थ यह है कि आदमी की आँखों से उसके मन के भावों का पता चल जाता है। प्रेम करने वालों की आँखों में चमक होती है। क्रोध हो, तो आँखें लाल हो जाती हैं। अगर शोक है, तो आँसू उमड़ आते हैं, वगैरह…वगैरह। आँखें ही व्यक्ति के मन के भाव को ठीक-ठीक प्रकट करती हैं। बिहारी भी लिखते हैं:

झूठे जान न संग्रहै, मुख सों निकसे बैन । या ही तैं विधि ने किए, बातन को ये नैन ।

मुख से निकले हुए वचन तो झूठे हो जाते हैं क्योंकि मुँह से कोई भी चीज़ निकले वह जूठी हो ही जाती है) इन वचनों को झूठे जानकर ही कवि ने कहा है कि सच्ची बात तो आँखें ही कह सकती हैं। इसीलिए सच को व्यक्त करने के लिए ही भगवान ने ये नैन दिए हैं।

कवि इस दोहे में बताना चाहता है कि आँखें मनुष्य के हृदय के भावों को प्रकट कर देती हैं। हम उन्हें देखकर समझ सकते हैं कि वह व्यक्ति हमारे प्रति कैसा भाव रखता है।

दोहा छंद का परिचय 

 आप यह जानते हैं कि पहले कविता लिखने के लिए कवि छंदों का प्रयोग करते थे- आज भी करते हैं। छंद या तो मात्राओं, या वर्णों पर आधारित होता था और निश्चित मात्राओं या वर्णों के बाद उसमें यति (ठहराव या विराम) और तुक का पालन किया जाता था। हिंदी में अधिकांशतः मात्रिक छंदों का प्रयोग किया गया है। दोहा भी एक मात्रिक छंद है।

मात्रा का अर्थ है- उच्चारण में लिया गया समय । उच्चारण-समय के आधार पर हृस्व और दीर्घ इकाइयाँ होती हैं। हृस्व को ‘लघु’ भी कहते हैं और इसकी एक मात्रा गिनते हैं तथा इसके लिए ‘|’ चिह्न का प्रयोग करते हैं। दीर्घ को ‘गुरु’ भी कहते हैं और इसकी दो मात्राएँ गिनते हैं तथा इसके लिए ‘5’ चिह्न का प्रयोग करते हैं । इसे हाशिए पर दिए गए चार्ट से आसानी से समझ सकते हैं।

तो आइए, अब हम मात्रा गिनना सीखें | हिंदी में अ, इ और उ ह्रस्व स्वर हैं, शेष सभी यानी आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ दीर्घ स्वर हैं। इसलिए जहाँ अ, इ, उ अथवा इनकी मात्राओं वाले व्यंजन (क, कि, कु आदि) होंगे, वहाँ हृस्व अर्थात् एक मात्रा होगी। जहाँ | आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ अथवा इनकी मात्राओं वाले व्यंजन (का, की, कू, के, के, को,

अब इस दोहे पर गौर कीजिए :

| ऽ । ऽ ऽ ऽ ।ऽ =13

बड़ा हुआ तो क्या हुआ,

ऽऽ ऽ। ।ऽ । = 11

जैसे पेड़ खजूर

5।। ऽ ऽऽ ।ऽ =13

पंथिन को छाया नहीं,

|| ऽऽ । । = 11

फल लागे अति दूर

___ आपने देखा कि इस दोहे में दो पंक्ति और चार चरण हैं |

पहले चरण में 1 + 2 + 1 + 2 + 2 + 2 + 1 + 2 = 13 मात्राएँ हैं।

दूसरे चरण में 2 + 2 + 2 + 1 + 1 + 2 + 1 = 11 मात्राएँ हैं।

तीसरे चरण में 2 + 1 + 1 + 2 + 2 + 2 + 1 + 2 = 13 मात्राएँ हैं |

चौथे चरण में 1 + 1 + 2 + 2 + 1 + 1 + 2 + 1 = 11 मात्राएँ हैं।

अर्थात् 13, 11, 13, 11 मात्राओं वाले चार चरण हैं। हम दोहे का वाचन करते समय भी इसी हिसाब से ठहराव देते हैं। पहले 13, फिर 11, फिर 13 और फिर 11 मात्राएँ। यह दोहे को पढ़े जाने का तरीका है।

दोहे के दूसरे और चौथे चरण में अंतिम दो वर्ण क्रमशः गुरु और लघु होते हैं, जैसे इस दोहे में ‘खजूर’ और ‘दूर’ में अंत के वर्ण ‘जू’ और ‘दू’ गुरु हैं तथा ‘र’ लघु है।

आप ऊपर के दोहे में एक बात और देखेंगे कि दूसरे और चौथे चरण की तुक मिल रही है खजूर और दूर । हाँ, यह भी दोहा छंद का आवश्यक नियम है।