तुलसीदास Nios class 12th chapter 3rd

रामचरितमानस का पाठ प्रायः हर घर में होता है। क्या आप जानते हैं कि इसकी रचना किसने की है? तुलसीदास ने। रामचरितमानस और तुलसी देशभर में प्रसिद्ध हैं। पढ़े लिखे हों या अनपढ़, गरीब हों या अमीर – रामचरितमानस और तुलसीदास में सबकी श्रद्धा है। रामचरितमानस में राम की कथा है- अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम की। दशरथ के चार पुत्र थे। चारों में परस्पर गहरा प्रेम था। राम इनमें सबसे बड़े थे। सबके आदर के पात्र थे और राम भी सबसे प्रगाढ़ प्रेम करते थे। रामचरितमानस में राम और भरत के प्रेम की चर्चा अनेक स्थानों पर हुई है। अयोध्याकांड में यह प्रसंग बड़ा ही मार्मिक बन पड़ा है। इस पाठ में हम उसके एक छोटे से अंश का अध्ययन करेंगे।

उददेश्य

इस पाठ को पढ़ने के बाद आप

  • भरत और राम के प्रेम की गहराई का वर्णन कर सकेंगे
  • बड़े भाई राम के प्रति भरत की आदर भावना का उल्लेख कर सकेंगे
  • भरत के चरित्र की विशेषताओं की सूची बना सकेंगे
  • निर्धारित उदाहरणों के आधार पर तुलसी की भाषा और शिल्प सौंदर्य की
  • विशेषताओं का उल्लेख कर सकेंगे।

भरत का भ्रात प्रेम

(रामचरितमानस से उद्धत) 

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई।

लखि अपने सिर सब छरु भारू। कहि न सकहिं कछ करहिं बिचारू। पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह-जल बाढ़े। कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा ।। मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ। मो पर क पा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।। सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू। मैं प्रभु कृपा रीति जिय जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही।।

दो० महूँ सनेह सकोच बस, सनमुख कही न बैन ।

दरसन त पित न आजु लगि, पेम पिआसे नैन । ।२

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा। यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।। मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली। फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।। सपनेहुँ दोस कलेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू। बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ।। हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा। गुरु गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनाम् ।

दो० साधु सभाँ गुर प्रभु निकट, कहउँ सुथल सति भाउ । 

प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ । 

तुलसीदास Nios class 12th chapter 3rd

भरत का भ्रात प्रेम आइए, ‘भरत का भ्रात प्रेम’ के प्रथम अंश को पुनः पढ़ें।

प्रसंग

आप यह तो जानते ही हैं कि सीता और लक्ष्मण सहित राम के वन चले जाने पर अयोध्यावासी बड़े दुखी हुए थे। राम के छोटे भाई भरत को सबसे अधिक दुख हुआ था। बता सकते हैं क्यों ? कैकेयी ने राजा दशरथ से राम के लिए वनवास और भरत के लिए राज्याभिषेक का वरदान माँगा था। भरत के लिए यह बात अकल्पनीय थी। राजगद्दी पर तो बड़े भाई का अधिकार होता है, किंतु यहाँ उन्हें वनवास दे दिया गया। भरत को लगता था कि इस सब के दोषी वही हैं। इससे भरत को अपयश मिल सकता था। इसलिए भरत अपने कुल-गुरु वसिष्ठ और राजपरिवार सहित अयोध्या के नागरिकों को साथ लेकर राम को लौटाने के लिए वन की ओर चल पड़े। तुलसी ने रामचरितमानस के अयोध्याकांड में उसी अवसर का वर्णन किया है।

अर्थ

मुनि के वचन सुनकर और श्रीरामचंद्रजी का रुख अपने पक्ष में पाकर– गुरु तथा स्वामी को पूर्णतः अपने अनुकूल जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं पा रहे थे। वे विचार करने लगे। शरीर से पुलकित होकर वे शरीर में सभा में खड़े हो गए। उनके कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई। वे बोले- मेरा कहना तो मुनिनाथ ने निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ? अपने स्वामी राम का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष क पा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी अप्रसन्नता नहीं देखी। बचपन से ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा (मेरे मन के प्रतिकूल कभी उन्होंने कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभु की कृपा करने की रीति को हृदय से भलीभाँति देखा है (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु जिताते रहे हैं। मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी उनके सामने मुँह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु राम के दर्शन से तप्त नहीं हुए।

व्याख्या

चित्रकूट में राम ने भरत के स्वभाव की बड़ी प्रशंसा की। उनका रुख देखकर वसिष्ठ ने भरत को संकेत दिया कि वे अपने हृदय की बात राम के समक्ष रखें। यही तो भरत चाहते थे। वे ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में ही थे कि कब गुरु वसिष्ठ और राम दोनों अनुकूल हों। अवसर प्राप्त होने पर उनके शरीर में सिहरन हुई। वे सभा के समक्ष बोलने के लिए खड़े तो हुए पर बोलने से पूर्व उनकी आँखों से प्रेम के आँसू बह चले। फिर बोले- मुझे जो कहना था वह तो मुनियों में श्रेष्ठ गुरु वसिष्ठ ने स्वयं कह ही दिया है, मैं उससे अधिक क्या कहूँ। मैं अपने भाई राम के स्वभाव से बचपन से ही परिचित हूँ। मैंने उन्हें कभी भी अपराधी पर क्रोध करते नहीं देखा। और मुझ पर तो उनकी विशेष क पा रही है। बचपन में आपस में खेलते समय भी मैंने उन्हें कभी अप्रसन्न नहीं देखा। मेरे बड़े भाई की मुझ पर सदैव इतनी अधिक क पा रही है कि यदि मैं कभी खेल हार जाता तो भी वे मुझे जिता ही देते थे। मैंने तो बचपन से ही कभी उनका साथ नहीं छोड़ा और सदा यह पाया कि उन्होंने मेरा मन कभी नहीं दुखाया। यह राम का बड़प्पन है कि वे कभी किसी का मन नहीं तोड़ते।

क्या आप बता सकते हैं कि भरत के इस कथन के पीछे क्या अभिप्राय हो सकता है ? जी हाँ ! यहाँ दो अभिप्राय प्रतीत होते हैं। एक तो यह कि वे स्पष्ट कह रहे हैं कि मैंने बचपन से ही राम का साथ कभी नहीं छोड़ा। अब इतनी दीर्घ अवधि के लिए उनका वियोग मैं कैसे सह सकता हूँ। दूसरा संकेत और भी महत्त्वपूर्ण है। वह है – ‘कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू’ अर्थात् राम ने कभी भी भरत का दिल नहीं दुखाया। अतः आज भी उन्हें विश्वास है कि राम उनका मन नहीं तोड़ेंगे और उनके आग्रह पर वापस अयोध्या लौट चलेंगे। किसी पर कृपा करने की राम की रीति भी भरत को ज्ञात है। उन्होंने उस रीति पर मनन किया है और पाया है कि वे तो हारे हुए को भी जिता देते हैं। भरत कहते हैं कि मैंने प्रेम और संकोच के कारण उनके सामने कभी मुख नहीं खोला। शिष्टाचार की परंपरा रही है कि बड़ों के सामने उदंडता का व्यवहार नहीं किया जाता। बड़ों के सामने मुख खोलना उनका अनादर है, जो भरत ने कभी नहीं किया। वे तो बस राम का दर्शन ही करते रहे किंतु दर्शनों से भी आज तक तप्त नहीं हुए। उनकी आँखें सदा राम के प्रेम की प्यासी ही बनी रहीं। 

अंश – 2 आगे की पंक्तियों को पुनः पढ़िए।

प्रसंग

यह भरत के शब्दों में राम के भ्रात स्नेह की स्म ति थी, जो उन्हें बार-बार याद आ रही थी। पर भरत के मन को बीच की घटनाओं की पीड़ा भी साल रही थी। उन्हें बार-बार अपनी माँ कैकयी की करनी भी याद आ रही थी और वे आत्मग्लानि से भर जाते थे। तुलसी ने भरत की इसी मनोदशा का वर्णन किया है।

अर्थ

भरत कहते हैं कि विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता; क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है ? (अर्थात जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु है, वही शुद्ध है) माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूँ। ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ दुराचारों के समान है। क्या कोदो की बाली उत्तम धान फल सकती है ? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है? स्वप्न में भी किसी को दोष देने का लेश भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया। मैं अपने हृदय में सब ओर खोज कर हार गया (मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता)। एक ही प्रकार से मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ और रामजी मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है। साधुओं की सभा में गुरु वसिष्ठ और स्वामी राम के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भाव से कहता हूँ। यह प्रेम है या प्रपंच (छल-कपट)? झूठ है या सच? इसे (सर्वज्ञ) मुनि वसिष्ठ जी और (अंतर्यामी) श्री रघुनाथजी जानते हैं।

व्याख्या

भरत का कथन अभी चल रहा है। उन्होंने राम की प्रीति का स्मरण किया, और उन्हें लगा कि विधाता उनके और राम के बीच गहरे प्रेम भाव को सहन नहीं कर सका। इसलिए उसने राम और भरत के स्नेह के बीच माता कैकेयी को उपस्थित कर मानों एक रुकावट डाल दी। भरत यह कह तो गए पर तुरंत ही उन्हें लगा कि यह कथन उन्हें शोभा नहीं देता। उन्हें ऐसा क्यों लगा होगा ? एक तो यही कि पत्र होने के कारण माँ की निंदा करना उचित नहीं है, पर स्थिति ऐसी ही आ पड़ी है। दूसरा कारण यह भी है कि कोई अपने आपको सुजान कैसे कह सकता है। आशय यह है कि कोई यह न समझे कि भरत स्वयं को पवित्र और सज्जन मान रहे हैं। अपने मानने भर से कुछ नहीं होता, हाँ ! लोग मानें तब बात और है।

भरत कहते हैं – यह सोचना कि माँ बुरी है और मैं सदाचारी और सज्जन हूँ, ठीक नहीं है। ऐसा भाव मन में आना करोड़ों दुराचरणों जैसा है। ‘कोटि कुचाली’ पर ध्यान दीजिए। माँ को बुरा मानने का असद् विचार वस्तुतः करोड़ों असद् विचारों जैसा बुरा है। अब आप शंका कर सकते हैं कि कैकेयी ने राम को वनवास दिलाया था, इसका समाधान भरत कैसे करेंगे। भरत के पास इसके दो कारण हैं – पहला है कैकेयी के स्वभाव की विशेषता । भरत उदाहरण देकर पूछ रहे हैं- भला कोदो के पौधे से शालिधान की बालें कैसे आएँगी। इसे दूसरी कहावत से भी कह सकते हैंबबूल के पेड़ पर आम कैसे लगेंगे। अर्थ यह भी है कि जब माँ में ही दोष है तो मैं निर्दोष कैसे हो सकता हूँ।

भरत स्पष्ट करते हैं कि स्वप्न में भी किसी को दोष देना ठीक नहीं। किसी का रत्तीभर भी दोष नहीं है, दोष तो बस भरत के भाग्य का है। मेरा दुर्भाग्य अथाह सागर है। उसकी कोई सीमा नहीं। कैकेई के द्वारा राम को बनवास का वरदान माँगना मेरे ही दुर्भाग्य सागर की एक लहर है। भरत को इतने से ही संतोष नहीं होता। अपने को कोसते हुए वे आगे कहते हैं- मैंने अपने पापों का परिणाम जाने बिना ही माँ को भला-बुरा कह कर उसके मन को चोट पहुँचाई। अब मैं अपने हृदय में अपनी भलाई के उपाय ढूँढ-ढूँढ कर हार गया हूँ। कोई उपाय सूझता ही नहीं। अब तो यही कहा जा सकता है कि समर्थ गुरु निकट बैठे हैं और भाई राम तथा भाभी सीता मेरे स्वामी हैं। इस सुयोग को देखकर मुझे विश्वास है कि जो भी परिणाम होगा वह अच्छा ही होगा।

उसी बात का और विस्तार करते हुए भरत कहते हैं कि यहाँ पर सज्जनों की सभा बैठी है, गुरु वशिष्ठ और स्वामी राम निकट बैठे हैं, यह स्थान चित्रकूट भी पवित्र | तीर्थस्थल है और मैं जो कह रहा हूँ उसके पीछे भी सात्विक भाव है। मुनिवर वसिष्ठ जी और राम यह भली-भाँति जानते हैं कि मेरी बातें प्रेम से भरी हैं या छल से, झूठी हैं या सच्ची। 

टिप्पणी 

आइए, तुलसीदास की काव्य-कला की बानगी 

1. भरत जब बोलने खड़े होते हैं तो उनकी आँखें प्रेम से डबडबा जाती हैं। पर कवि उसे अपनी शैली में कहता है – ‘नीरज नयन नेह जल बाढ़े।’ कमल जैसी आँखों में स्नेह का जल भर गया। स्नेहाधिक्य से भावावेश के कारण आँखों से आँसू उमड़ आए।

उपमा और रूपक अलंकार की निकटता देखिए –

यहाँ पर आँखों की उपमा कमल से दी गई है, इसलिए ‘नीरज नयन’ में उपमा अलंकार और ‘नेह जल’ में रूपक अलंकार है। उपमा और रूपक के बारे में तो आप रैदास वाले पाठ में पढ़ ही चुके हैं।

‘नीरज’ के समान कोमल सुंदर आँखों में (उपमा) नेह का जल (रूपक) बढ़ गया है।

2. बड़ी विनम्र शैली में वाक् चातुरी (बोलने की समझदारी) की झलक देखिए

“मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ, अपराधिहु पर कोह न काऊ।।

मौं पर क पा सनेहु बिसेखी

मैं राम के स्वभाव को जानता हूँ, यह कहने के लिए भरत उन्हें निज नाथ (मेरे स्वामी) कहते हैं। भाई-भाई के बीच भी बड़े भाई को स्वामी मानने का भाव है और स्वामी के स्वभाव में स्वामित्व वाला बड़प्पन या अहंकार नहीं है। पर भी क्रोध न करना उनका स्वभाव है। यहाँ ‘अपराधी’ शब्द को तुलसी जानबूझ कर लाए हैं। संकेत यह है कि भरत से (उसकी माँ से) जो हुआ है वह अपराध से कम नहीं, पर राम का स्वभाव है कि अपराधी पर क्रोध न करना। इस जानकारी से ही भरत निश्चित नहीं कर देते, वे यह भी कहते हैं कि मुझ पर राम की विशेष क पा रही है, अतः वे बिल्कुल क्रोध नहीं करेंगे और मझे क्षमा कर देंगे।

3. रामचरित मानस में भरत अपनी माँ को तब बहुत बुरा भला कहते हैं, जब उन्हें ननिहाल से लौट कर अयोध्या की घटनाओं की सूचना मिलती है। वह क्रोध और आवेश तात्कालिक था। वे माँ पर बरस पड़े थे और इस प्रकार वे माँ के प्रति दुर्व्यवहार के दोषी हो गए थे। तुलसी उन्हें इस आक्षेप से मुक्त कराना चाहते हैं, इसलिए यहाँ भरत से कहलाते हैं –

सपनेहुँ दोस कलेसु न काहू । मोर अभाग उदधि अवगाहू।

बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ।।

4. अंतिम दोहे में भी बड़ा अर्थ-गांभीर्य है। भरत यह आश्वासन देना चाहते हैं कि उनकी बातों में छल कपट नहीं है, वे सत्य बोल रहे हैं। प्रमाण स्वरूप स्पष्ट करना चाहते हैं कि वैसे ही सामान्य स्थितियों में भी छल या झूठ संभव नहीं फिर यहाँ तो ऐसी पाँच स्थितियाँ हैं, जिनमें झूठ बोलने का प्रश्न ही नहीं उठता, जैसे –

1. सज्जनों की सभा 

2. कुल-गुरु वसिष्ठ की निकटता 

3. स्वामी राम और सीता का सान्निध्य 

4. चित्रकूट जैसा पावन तीर्थ

5. भरत के मन का सात्विक भाव 

ऐसे वातावरण में सामान्यतः कोई भी झूठ नहीं बोल सकता, अतः भरत जो कह रहे हैं, उस पर अविश्वास का कोई कारण ही नहीं।

5. तुलसीदास का रामचरित मानस रामकथा के माध्यम से आदर्श व्यवहार और आचरण की सीख भी देता है। इस अंश में एक ओर भाइयों के परस्पर प्रेम की और दूसरी ओर गुरुजनों का सम्मान करने की सीख है, जो आज के संदर्भो में भी उपयुक्त और प्रासंगिक है।

शिल्प सौंदर्य

तुलसी की काव्य कला की बानगी आप देख चुके हैं। भाव और शिल्प क्षेत्रों में वे | बेजोड़ हैं। आइए यहाँ काव्य-शिल्प की द ष्टि से एक बार पुनः अवलोकन करें।

  1. अलंकारों का सहज प्रयोग : तुलसी की कविता में भाव-वर्णन के साथ-साथ अलंकार स्वाभाविक रूप में पिरोए गए हैं, थोपे नहीं गए। जैसे : 

(क) ‘नीरज नयन नेह जल बाढ़े’ – नीरज के समान भरत के नेत्रों में स्नेह का जल बढ़ गया। उपमा, रूपक अनुप्रास का सहज सौंदर्य। 

(ख) पग-पग पर अनुप्रास के सहज प्रयोग में भी तुलसी सिद्धहस्त हैं; विशेष कर छेकानुप्रास (केवल एक बार आव त्ति) में जैसे –

  • सुनि मुनिवचन राम रुख पाई 
  • पुलकि सरीर सभाँ भए ठाड़े
  • खेलत खुनिस न कबहूँ देखी। 

वस्तुतः ऐसे प्रयोग यत्र-तत्र प्रचुर मात्रा में हैं। आप स्वयं खोजकर लिखिए। 

व त्यनुप्रास-एकाधिकबार आवत्ति का एक उदाहरण दर्शनीय है: – 

हृदय हेरि हारेउँ सब ओरा।

एकहि भाँति भलेहि भल मोरा ।।

 (ग) उदाहरण/दृष्टांत – 

फाइ कि कोदव बालि सुसाली।

मुकता प्रसव कि संबुक काली।। 

(घ) उपमा – मोर अभाग उदधि अवगाहू। 

2. नादात्मकता – मधुर वर्गों के प्रयोग से कविता में नादात्मकता भी तुलसी की कविता का प्रमुख गुण है। जैसे :

  • सुनि मुनि वचन राम रुख पाई 
  • नीरज नयन नेह जब बाढ़े 
  • मातु मंदि मैं साधु सुचाली 
  • अपनी समुझि साधु सुचि को भा
  • जारिउँ जायँ जननि कहि काकू 

3. साभिप्राय प्रयोग – तुलसी अनेक शब्दों में से सर्वाधिक उपयुक्त शब्द का जानबूझ कर चयन करते हैं। इससे कविता में अर्थ गांभीर्य भी आ गया है। जैसे :

साधु सभाँ गुरु प्रभु निकट, कहउँ सुथल सति भाउ । 

प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।

उपर्युक्त दोहे में ‘झूठ’ न बोलने के लिए पाँच बहुत ही सबल कारण एक दोहे में पिरोए गए हैं।

4. प्रांजल अवधी – तुलसीदास ने मानस की रचना अवधी भाषा में की है, किंतु उनकी अवधी बहुत मधुर प्रांजल शब्दावली से युक्त है- जैसे :

पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े।

नीरज नयन नेह-जल बाढ़े ।। 

5. दोहा-चौपाई छंद – दोहा और चौपाई तुलसी के प्रिय छंद हैं। इनसे कथा-प्रवाह में सहायता मिलती है और पाठक/श्रोता रस-विभोर हो जाता है।