Nios Class 10th Hindi Chapter 1st बहादुर

आपने कम उम्र के अनेक लड़के-लड़कियों को कारखानों, चाय की दुकानों या फिर घरों में काम करते देखा होगा। आपकी इच्छा होती होगी कि उनके विषय में कुछ जानें, जैसे- वे कहाँ से आए हैं? क्यों आए हैं? कैसे रहते हैं? उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है? विभिन्न परिस्थितियों का सामना वे कैसे करते हैं ? संभव है कि इस विषय में आपके भी कुछ अनुभव हों। बहादुर एक ऐसे किशोर की कहानी है, जो अपने घर से भागकर शहर आता है। वहाँ एक घर में नौकरी करने लगता है। वह अपना काम पूरी ईमानदारी और लगन से करता है, लेकिन एक दिन अचानक वह इस घर से भी भाग जाता है। वह ऐसा क्यों करता है – आइए, जानें।

उददेश्य

इस पाठ को पढ़ने के बाद आप

  • बहादुर के घर से भागने के मनोवैज्ञानिक कारण स्पष्ट कर सकेंगे;
  • वयस्कों, विशेषतः किशोरों पर सामाजिक परिवेश के दबाव को समझ सकेंगे;
  • भिन्न परिस्थितियों वाले दो किशोरों के व्यवहार में अंतर स्पष्ट कर सकेंगे;
  • बहादुर के प्रति परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार पर कारण सहित टिप्पणी कर सकेंगे;
  • बहादुर के नौकरी छोड़कर भाग जाने के बाद सभी के पछतावे का कारण बता सकेंगे;
  • बहादुर जैसे किसी अन्य किशोर के रहन-सहन पर टिप्पणी कर सकेंगे;
  • कहानी के मुख्य पात्रों का चरित्र-चित्रण कर सकेंगे;
  • कहानी की भाषा-शैली पर टिप्पणी कर सकेंगे।

बहादुर

सहसा मैं काफी गंभीर हो गया था, जैसा कि उस व्यक्ति को हो जाना चाहिए, जिस पर एक भारी दायित्व आ गया हो। वह सामने खड़ा था और आँखों को बुरी तरह मलका रहा था। बारह-तेरह वर्ष की उम्र । ठिगना चकइठ शरीर, गोरा रंग और चपटा मुँह । वह सफ़ेद नेकर, आधी बाँह की सफेद कमीज़ और भूरे रंग का पुराना जूता पहने था। उसके गले में स्काउटों की तरह एक रूमाल बँधा था। उसको घेरकर परिवार के अन्य लोग खड़े थे। निर्मला चमकती दृष्टि से कभी लड़के को देखती और कभी मुझको और अपने भाई को। निश्चय ही वह पंच बराबर हो गई थी।

उसको लेकर मेरे साले साहब आए थे। नौकर रखना कई कारणों से बहुत ज़रूरी हो गया था। मेरे सभी भाई और रिश्तेदार अच्छे ओहदों पर थे और उन सभी के यहाँ नौकर थे। मैं जब बहन की शादी में घर गया, तो वहाँ नौकरों का सुख देखा। मेरी दोनों भाभियाँ रानी की तरह बैठकर चारपाइयाँ तोड़ती थीं, जबकि निर्मला को सबेरे से लेकर रात तक खटना पड़ता था। मैं ईर्ष्या से जल गया। इसके बाद नौकरी पर वापस आया, | तो निर्मला दोनों जन ‘नौकर-चाकर’ की माला जपने लगी। उसकी तरह अभागिन दुखिया स्त्री और भी कोई इस दुनिया में होगी? वे लोग दूसरे होते हैं, जिनके भाग्य में नौकर का सुख होता है…..

| पहले साले साहब से उसका किस्सा सुनना पड़ा। वह एक नेपाली था, जिसका गाँव नेपाल और बिहार की सीमा पर था। उसका बाप युद्ध में मारा गया था और उसकी माँ सारे परिवार का भरण-पोषण करती थी। माँ उसकी बड़ी गुस्सैल थी और उसको बहुत मारती थी। माँ चाहती थी कि लड़का घर के काम-धाम में हाथ बटाए, जबकि वह पहाड़ या जंगलों में निकल जाता और पेड़ों पर चढ़कर चिड़ियों के घोंसलों में हाथ डालकर उनके बच्चे पकड़ता या फल तोड़-तोड़कर खाता। कभी-कभी वह पशुओं को चराने के लिए ले जाता था। उसने एक बार उस भैंस को बहुत मारा, जिसको उसकी माँ बहुत प्यार करती थी, और इसीलिए उससे वह बहुत चिढ़ता था। मार खाकर भैंस भागी-भागी उसकी माँ के पास चली गई, जो कुछ दूरी पर एक खेत में काम कर रही । थी। माँ का माथा ठनका। बेचारा बेज़बान जानवर चरना छोड़कर यहाँ क्यों आएगा?

ज़रूर उसने उसको काफ़ी मारा है। वह गुस्से से पागल हो गई। जब लड़का आया, तो माँ ने भैंस की मार का काल्पनिक अनुमान करके एक डंडे से उसकी दुगुनी पिटाई की और उसको वहीं कराहता हुआ छोड़कर घर लौट आई। लडके का मन माँ से फट गया और वह रात भर जंगल में छिपा रहा। जब सबेरा होने को आया, तो वह घर पहुँचा और किसी तरह अंदर चोरी-चुपके घुस गया। फिर उसने घी की हँडिया में हाथ डालकर माँ के रखे रुपयों में से दो रुपए निकाल लिए। अंत में नौ-दो ग्यारह हो गया। वहाँ से छह मील की दूरी पर बस स्टेशन था, जहाँ गोरखपुर जाने वाली बस मिलती थी।

तुम्हारा नाम क्या है, जी

पूछा। दिल बहादुर, सा’ब। उसके स्वर में एक मीठी झनझनाहट थी। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मैंने उसको क्या हिदायतें दीं। शायद यह कि वह शरारतें छोड़कर ढंग से काम करे और इस घर को अपना घर समझे । इस घर में नौकर-चाकर को बहुत प्यार और इज्जत से रखा जाता है। जो सब खाते-पहनते हैं, वही नौकर-चाकर खाते-पहनते हैं। अगर वह यहाँ रह गया तो ढंग-शऊर सीख जाएगा, घर के और लड़कों की तरह पढ़-लिख जाएगा और उसकी जिंदगी सुधर जाएगी। निर्मला ने उसी समय कुछ व्यावहारिक उपदेश दे डाले थे। इस मुहल्ले में बहुत तुच्छ लोग रहते हैं, वह न किसी के यहाँ जाए और न किसी का काम करे। कोई बाज़ार से कुछ लाने को कहे, तो वह ‘अभी आता हूँ’ कहकर अंदर खिसक जाए। उसको घर के सभी लोगों से सम्मान और तमीज़ से बोलना चाहिए। और भी बहुत सी बातें । अंत में निर्मला ने बहुत ही उदारतापूर्वक लड़के के नाम में से ‘दिल’ शब्द उड़ा दिया।

परंतु, बहादुर बहुत ही हँसमुख और मेहनती निकला। उसकी वजह से कुछ दिनों तक हमारे घर में वैसा ही उत्साहपूर्ण वातावरण छाया रहा, जैसा कि प्रथम बार तोता-मैना

या पिल्ला पालने पर होता है। सबेरे – सबेरे ही मुहल्ले के छोटे-छोटे लड़के घर के अंदर आकर खड़े हो जाते और उसको देखकर हँसते या तरह-तरह के प्रश्न करते। “ऐ, तुम लोग छिपकली को क्या कहते हो?””ऐ, तुमने शेर देखा है?” ऐसी ही बातें । उससे पहाड़ी गाने की फरमाइशें की जातीं। घर के लोग भी उससे इसी प्रकार की छेड़खानियाँ | करते थे। वह जितना उत्तर देता, उससे अधिक हँसता था। सबको उसके खाने और नाश्ते की बड़ी फिक्र रहती। निर्मला आँगन में खड़े होकर पड़ोसियों को सुनाते हुए कहती थी – बहादुर, आकर नाश्ता क्यों नहीं कर लेते? मैं दूसरी औरतों की तरह नहीं हूँ, जो नौकर-चाकर को तलती-भूनती हैं। मैं तो नौकर-चाकर को अपने बच्चे की तरह रखती हूँ। उन्होंने तो साफ़-साफ़ कह दिया है कि सौ-डेढ़ सौ महीनावारी उस पर भले ही खर्च हो जाए, पर तकलीफ उसको ज़रा भी नहीं होनी चाहिए। एक नेकर-कमीज़ तो उसी रोज़ लाए थेऔर भी कपड़े बन रहे हैं |

धीरे-धीरे वह घर के सारे काम करने लगा। सबेरे ही उठकर वह बाहर नीम के पेड़ से दातून तोड़ लाता था। वह हाथ का सहारा लिए बिना कुछ दूर तक तने पर दौड़ते हुए चढ़ जाता। मिनट भर में वह पेड़ की पुलई पर नज़र आता। निर्मला छाती पीटकर कहती थी – अरे रीछ-बंदर की जात, कहीं गिर गया तो बड़ा बुरा होगा। वह घर की सफाई करता, कमरों में पोंछा लगाता, अँगीठी जलाता, चाय बनाता और पिलाता। दोपहर में कपड़े धोता और बर्तन मलता। वह रसोई बनवाने की भी ज़िद करता, पर | निर्मला स्वयं सब्जी और रोटी बनाती। निर्मला की उसको बहुत फ़िक्र रहती थी।

उसकी उन दिनों तबीयत ठीक नहीं रहती थी, इसलिए वह कुछ दवा ले रही थी। | बहादुर उसको कोई काम करते देखकर कहता था – माता जी, मेहनत न करो, तकलीफ बढ़ जाएगा। वह कोई भी काम करता होता, समय होने पर हाथ धोकर भालू की तरह दौड़ता हुआ कमरे में जाता और दवाई का डिब्बा निर्मला के सामने लाकर रख देता।

जब मैं शाम को दफ्तर से आता, तो घर के सभी लोग मेरे पास आकर दिन भर के | अपने अनुभव सुनाते थे। बाद में वह भी आता था। वह एक बार मेरी ओर देखकर सिर झुका लेता और धीरे-धीरे मुस्कराने लगता। वह किसी बहुत ही मामूली घटना

की रिपोर्ट देता। बाबू जी, बहिन जी का एक सहेली आया था या बाबू जी, भैया | सिनेमा गया था। उसके बाद वह इस तरह हँसने लगता था, गोया बहुत ही मज़ेदार बात कह दी हो। मैं उससे बातचीत करना चाहता था, पर ऐसी इच्छा रहते हुए भी मैं जान-बूझकर बहुत गंभीर हो जाता था और दूसरी ओर देखने लगता था। निर्मला कभी-कभी उससे पूछती थी – बहादुर, तुमको अपनी माँ की याद आती है?

नहीं।

क्यों?

वह मारता क्यों था?-इतना कहकर वह खूब हँसता था, जैसे मार खाना खुशी की |

बात हो। –

तब तुम अपना पैसा माँ के पास कैसे भेजने को कहते हो? –

माँ-बाप का कर्जा तो जन्म भर भरा जाता है – वह और भी हँसता था।

निर्मला ने उसको एक फटी-पुरानी दरी दे दी थी। घर से वह एक चादर भी ले आया था। रात को काम-धाम करने के बाद वह भीतर के बरामदे में एक टूटी हुई बँसखट पर अपना बिस्तर बिछाता था। वह बिस्तरे पर बैठ जाता और जेब में से कपड़े की एक गोल-सी नेपाली टोपी निकालकर पहन लेता, जो बाईं ओर काफी झुकी रहती थी। फिर वह एक छोटा-सा आईना निकालकर बंदर की तरह उसमें अपना मुँह देखता था। वह बहुत ही प्रसन्न नज़र आता था। इसके बाद कुछ और भी चीजें उसकी जेब से

निकलकर उसके बिस्तरे पर सज जाती थीं – कुछ गोलियाँ, पुराने ताश की एक गड्डी, कुछ खूबसूरत पत्थर के टुकड़े, ब्लेड, कागज़ की नावें । वह कुछ देर तक उनसे खेलता था। उसके बाद वह धीमे-धीमे स्वर में गुनगुनाने लगता था। उन पहाड़ी गानों का अर्थ हम समझ नहीं पाते थे, पर उनकी मीठी उदासी सारे घर में फैल जाती, जैसे कोई पहाड़ की निर्जनता में अपने किसी बिछुड़े हुए साथी को बुला रहा हो।

दिन मज़े में बीतने लगे। बरसात आ गई थी। पानी रुकता था और बरसता था। मैं अपने को बहुत ऊँचा महसूस करने लगा था। अपने परिवार और संबंधियों के बड़प्पन तथा शान-बान पर मुझे सदा गर्व रहा है । अब मैं मुहल्ले के लोगों को पहले से भी तुच्छ समझने लगा। मैं किसी से सीधे मुँह बात न करता। किसी की ओर ठीक से देखता भी नहीं था। दूसरे के बच्चों को मामूली-सी शरारत पर डाँट-डपट देता था। कई बार पड़ोसियों को सुना चुका था – जिसके पास कलेजा है, वही आजकल नौकर रख

सकता है। घर के सवांग की तरह रहता है। निर्मला भी सारे मुहल्ले में शुभ सूचना दे आई थी – आधी तनखाह तो नौकर पर ही ख़र्च हो रही है, पर रुपया-पैसा कमाया किसलिए जाता है? ये तो कई बार कह ही चुके थे कि तुम्हारे लिए दुनिया के किसी कोने से नौकर ज़रूर लाऊँगा… वही हुआ।

निस्संदेह, बहादुर की वजह से सबको बहुत आराम मिल रहा था। घर खूब साफ़ और चिकना रहता। कपड़े चमाचम सफेद। निर्मला की तबीयत भी काफी सुधर गई थी। अब कोई एक खर भी न टकसाता था। किसी को मामूली काम करना होता, तो वह बहादुर को आवाज़ देता – “बहादुर, एक गिलास पानी…”, “बहादुर पेंसिल नीचे गिरी है, उठाना।” इसी तरह की फरमाइशें ! बहादुर घर में फिरकी की तरह नाचता रहता । सभी रात में पहले ही सो जाते थे और सबेरे आठ बजे के पहले न उठते थे।

मेरा बड़ा लड़का किशोर काफी शान-शौकत और ‘रौब-दाब’ से रहने का कायल था और उसने बहादुर को अपने कड़े अनुशासन में रखने की आवश्यकता महसूस कर ली थी। फलतः उसने अपने सभी काम बहादुर को सौंप दिए। सबेरे उसके जूते में पालिश लगनी चाहिए। कॉलेज जाने के ठीक पहले साइकिल की सफाई ज़रूरी थी। रोज़ ही उसके कपड़ों की धुलाई और इस्त्री होनी चाहिए। और रात में सोते समय वह नित्य बहादुर से अपने शरीर की मालिश कराता और मुक्की भी लगवाता। पर इतनी सारी फ़रमाइशों की पूर्ति में कभी-कभी कोई गड़बड़ी भी हो जाती। जब ऐसा होता, किशोर गर्जन-तर्जन करने लगता, उसको बुरी-बुरी गालियाँ देता और उस पर हाथ छोड़ देता । | मार खाकर बहादुर एक कोने में खड़ा हो जाता – चुपचाप।

‘देख बे’ – किशोर चेतावनी देता – मेरा काम सबसे पहले होना चाहिए। अगर एक काम भी छूटा, तो मारते-मारते हुलिया टाइट कर दूंगा। साला, काम चोर, करता क्या है तू? बैठा-बैठा खाता है।

रोज़ ही कोई-न-कोई ऐसी बात होने लगी, जिसकी रिपोर्ट पत्नी मुझे देती थी। मैंने किशोर को मना किया, पर वह नहीं माना, तो मैंने यह सोचकर छोड़ दिया कि थोड़ा बहुत तो यह चलता ही रहता है। फिर एक हाथ से ताली कहाँ बजती है? बहादुर भी बदमाशी करता होगा। पर, एक दिन जब मैं दफ्तर से आया, तो मैंने किशोर को एक डंडे से बहादुर की पिटाई करते हुए देखा। निर्मला कुछ दूरी पर खड़ी ‘हाँ-हाँ’ कहती हुई मना कर रही थी।

मैंने किशोर को डाँटकर अलग किया । कारण यह था कि शाम को साइकिल की सफाई करना बहादुर भूल गया था / किशोर ने उसको मारा तथा गलिया दी तो उसने उसका काम करने से इनकार कर दिया /

तुम साइकिल साफ क्यों नहीं करते / मैंने उससे कड़ाई से पूछा /

बाबू जी भैया ने मेरे मेरे बाप को क्यों लाकर खड़ा किया – वह रोते हुए बोला

मैं जानता था कि किशोर उसको और भी भद्दी गालियाँ देता था, लेकिन आज उसने ‘सूअर का बच्चा’ कहा था, जो उसे बरदाश्त न हुआ। निस्संदेह वह गाली उसके बाप पर पड़ती थी। मुझे कुछ हँसी आ गई। खैर, किशोर के व्यवहार को अच्छा नहीं कहा जा सकता, पर गृहस्वामी होने के कारण मुझ पर कुछ और गंभीर दायित्व भी थे।

मैंने उसे समझाया – बहादुर, ये आदतें ठीक नहीं। तुम ठीक से काम करोगे, तो तुमको कोई कुछ भी नहीं कहेगा। मेहनत बहुत अच्छी चीज़ है, जो उससे बचने की कोशिश करता है, वह कुछ भी नहीं कर सकता। रूठना-फूलना मुझे सख्त नापसंद है। तुम तो घर के लड़के की तरह हो। घर के लड़के मार नहीं खाते? हम तुमको जिस सुख-आराम से रखते हैं, वह कोई क्या रखेगा? जाकर दूसरे घरों में देखो, तो पता लगे। नौकर-चाकर भरपेट भोजन के लिए तरसते रहते हैं। चलो, सब ख़त्म हुआ, अब कामधाम करो..

वह चुपचाप सुनता रहा। फिर हाथ-मुँह धोकर काम करने लगा। जल्दी ही वह प्रसन्न भी हो गया। रात में सोते समय वह अपनी टोपी पहनकर देर तक गाता रहा।

लेकिन कुछ दिनों बाद एक और गड़बड़ी शुरू हुई। निर्मला बहुत पतली-पतली रोटियाँ सेंकती थी, इसलिए वह रोटी बनाने का काम कभी बहादुर से नहीं लेती थी, लेकिन मुहल्ले की किसी औरत ने उसे यह सिखा दिया कि परिवार के लिए रोटियाँ बनाने के बाद वह बहादुर से कहे कि वह अपनी रोटी खुद बना लिया करे, नहीं तो नौकर-चाकर की आदत ख़राब हो जाती है, महीन खाने से उनकी आदत बिगड़ जाती है।

यह बात निर्मला को अँच गई थी और रात में उसने ऐसा ही प्रयोग किया। वह अपनी रोटियाँ बनाकर चौके में से उठ गई। बहादुर का मुँह उतर गया। वह चूल्हे के पास सिर झुकाकर चुपचाप खड़ा रहा। –

क्या हो गया रे? –

निर्मला ने पूछा। वह कुछ नहीं बोला। –

चल, चुपचाप बना अपनी रोटियाँ । तू सोचता है कि मैं तुझे पतली-पतली,

नरम-नरम रोटियाँ सेंककर खिलाऊँगी? तू कोई घर का लड़का है ? नौकर-चाकर तो अपना बनाकर खाते ही रहते हैं। तीता तो इनको इसलिए लग रहा है कि सारे घर के लिए मैंने रोटियाँ बनाईं, इनको अलग करके इनके साथ भेद क्यों किया? वाह रे, इसके पेट में तो लंबी दाढ़ी है! समझ जा, रोटियाँ नहीं सेंकेगा, तो भूखा रहेगा।

पर, बहादुर उसी तरह खड़ा रहा, तो निर्मला का गुस्से से बुरा हाल हो गया। उसने लपककर उसके माथे पर दो-तीन थप्पड़ जड़ दिए – सूअर कहीं के! इसीलिए किशोर तुझे मारता है। इसी वजह से तेरी माँ भी मारती होगी। चल, बना रोटी…

मैं नहीं बनाऊँगा… मेरी माँ भी सारे घर की रोटियाँ बनाकर मुझसे रोटी सेंकवाती थीवह रोने लगा था।

तो क्या मैं तेरी माँ हूँ कि तू मुझसे ज़िद कर रहा है? घर के लड़कों के बराबर बन रहा

है? मारते-मारते मुँह रँग दूंगी।

पर, उसने अपने लिए रोटी नहीं बनाई। मुझे भी बड़ा गुस्सा आया। मैंने उसको डाँटा और समझाया। पर वह नहीं माना। रात भर वह भूखा ही रहा। | पर, सबेरे उठकर वह पहले की तरह ही हँसने लगा। उसने अँगीठी जलाकर अपने लिए रोटियाँ

सेंकी। अपनी बनाई मोटी और भद्दी रोटी कोदेखकर वह खिलखिलाने लगा। फिर रात की बची हुई सब्जी से उसने खाना खा लिया। | लेकिन निर्मला का भी हाथ खुल गया था। वह उससे कुछ चिढ़ भी गई थी। अब बहादुर

से कोई भी गलती होती, तो वह उस पर हाथ चला देती। उसको मारने वाले अब घर | में दो व्यक्ति हो गए थे और कभी-कभी एक गलती के लिए उसको दोनों मारते।

बरसात बीत गई थी। आकाश दर्पण की तरह स्वच्छ दिखाई देता। मैंने बहादुर की माँ | के पास चिट्ठी लिखी थी कि उसका लड़का मेरे पास मज़े में है और मैं उसकी तनखाह | के पैसे उसके पास भेज दिया करूँगा, लेकिन कई महीने के बाद भी उधर से कोई जवाब नहीं आया था। मैंने बहादुर से कह दिया था कि उसका पैसा यहाँ जमा रहेगा, जब घर जाएगा, तो लेता जाएगा।

पर, अब बहादुर से भूल-गलतियाँ अधिक होने लगी थीं। शायद इसका कारण मार-पीट | और गाली-गलौज़ हो। मैं कभी-कभी इसको रोकना चाहता, फिर यह सोचकर चुप लगा जाता कि नौकर-चाकर तो मार-पीट खाते ही रहते हैं।

एक दिन रविवार को मेरी पत्नी के एक रिश्तेदार आए। वे बीवी-बच्चों के साथ थे। वे | अपने किसी ख़ास संबंधी के यहाँ आए थे, तो यहाँ भी भेंट-मुलाकात करने के लिए चले | आए थे। घर में बड़ी चहल-पहल मच गई। मैं बाज़ार से रोहू मछली और देहरादूनी चावल ले आया । नाश्ते-पानी के बाद बातों की जलेबी छनने लगी। पर इसी समय एक घटना हो गई।

अचानक उस रिश्तेदार की पत्नी नीचे फर्श पर झुककर देखने लगी। फिर उसने चारपाई के अंदर झाँककर देखा। अंत में कमरे के अंदर चली गई और फर्श पर पड़े हुए कागज़ों को उठाकर जाँच-पड़ताल करने लगी।

– क्या बात है ?मैंने पूछा।

रिश्तेदार की पत्नी जबरदस्ती मुस्कराकर मजबूरी में सिर हिलाते हुए बोली – क्या बताएँ … ग्यारह रुपए साड़ी के सूंट से निकालकर यहीं चारपाई पर रखे थे… पर वे मिल नहीं रहे हैं…

आपको ठीक याद है न…

– हाँ-हाँ खूब अच्छी तरह याद है। ये रुपए मैंने खूट में बाँधकर रखे थे… रिक्शेवाले को देने के लिए खूट खोला ही था, फिर वे रुपए चारपाई पर रख दिए थे कि चार रुपए की मिठाई मँगा लूँगी और कुछ बच्चों के हाथ पर रख दूंगी। रास्ते में कोई ढंग की दुकान नहीं मिली थी, नहीं तो उधर से ही लाती। किसी के यहाँ खाली हाथ जाने में अच्छा नहीं लगता। बताइए, अब तो मैं कहीं की न रही। फिर मेरी ओर झुककर धीमे स्वर में कहा था – ज़रा उससे पूछिए न! वह इधर आया था। कुछ देर तक वह यहाँ खड़ा रहा, फिर तेज़ी से बाहर चला गया था।

– अरे नहीं, वह ऐसा नहीं है – मैंने कहा।

– यू डू नॉट नो, दीज़ पीपुल आर एक्सपर्ट इन दिस आर्ट – रिश्तेदार ने कहा । मैंने बहादुर की ओर तिरछी दृष्टि से देखा। वह सिर झुकाकर आटा गूंथ रहा था। उसके चेहरे पर संतुष्टि एवं प्रसन्नता थी। उसने ऐसा काम तो कभी नहीं किया, बल्कि जब कभी उसने दो-चार आने इधर-उधर पड़े देखे, तो उठाकर निर्मला के हाथ में दे दिए थे। पर, किसी के दिल की बात कोई कैसे जान सकता है ? न मालूम अचानक मुझे क्या हो गया और मैं गुस्से में आ गया।

बहादुर ! मैंने कड़े स्वर में पूछा। –

जी, बाबू जी। –

इधर आओ।

वह आकर खड़ा हो गया। –

तुमने यहाँ से रुपए उठाए थे? –

जी नहीं, बाबू जी – उसने निर्भय उत्तर दिया। –

ठीक बताओ… मैं बुरा नहीं मानूँगा।

नहीं बाबू जी। मैं लेता, तो बता देता।

तुम यहाँ खड़े नहीं थे? – रिश्तेदार की पत्नी ने कहा – फिर तेज़ी से बाहर चले गए थे। देखो भैया, सच-सच बता दो। मिठाई ख़रीदने और बच्चों को देने के लिए ये रुपए रखे थे। मैं तो बुरी फँसी। अब वापस जाने के लिए रिक्शे के भी पैसे नहीं।

मैं तो बाहर नमक लेने लगा था।

सच-सच बता बहादुर ! अगर नहीं बताएगा, तो बहुत पीढूँगा और पुलिस के सुपुर्द कर दूंगा – मैं चिल्ला पड़ा।

मैंने नहीं लिया बाबू जी, – बहादुर का मुँह काला पड़ गया।

पता नहीं मुझे क्या हो गया! मैंने सहसा उछलकर उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया। मैं आशा कर रहा था कि ऐसा करने से वह बता देगा। तमाचा खाकर वह गिरते-गिरते बचा। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। –

मैंने नहीं लिया…

इसी समय रिश्तेदार साहब ने एक अजीब हरकत की – अच्छा छोड़िए, इसको पुलिस के पास ले जाता हूँ | इतना कहकर उन्होंने बहादुर का हाथ पकड़ लिया और उसको दरवाजे की ओर घसीटकर ले गए। पर, दरवाजे के पास उससे धीरे से बोले – देखो, तुम मुझे बता दो..मैं कुछ नहीं करूँगा, बल्कि तुमको ईनाम में दो रुपए दे दूंगा।

पर, बहादुर ने इन्कार कर दिया। इसके बाद रिश्तेदार साहब दो-तीन बार उसको दरवाजे की ओर खींचकर ले गए, जैसे पुलिस को देने ही जा रहे हैं। लेकिन आगे बढ़कर वे रुक जाते और उससे धीमे-धीमे शब्दों में पूछ-ताछ करने लगते ।

अंत में हारकर उन्होंने उसको छोड़ दिया और वापस आकर चारपाई पर बैठते हुए हँसकर बोले – जाने दीजिए…ये सब बड़े घाघ होते हैं। किसी झाड़ी-वाड़ी में छिपा आया | होगा या जमीन में गाड़ आया होगा। मैं तो इन सबों को खूब जानता हूँ | भालू-बंदर से कम थोड़े होते हैं ये । चलिए, इतना नुकसान लिखा था।

इसके बाद निर्मला ने भी उसको डराया-धमकाया और दो-चार तमाचे जड़ दिए, पर वह ‘नहीं-नहीं करता रहा।

इस घटना के बाद बहादुर काफी डाँट-मार खाने लगा। घर के सभी लोग उसको कुत्ते की तरह दुरदुराया करते। किशोर तो जैसे उसकी जान के पीछे पड़ गया था। वह उदास रहने लगा और काम में लापरवाही करने लगा।

एक दिन मैं दफ्तर से विलंब से आया। निर्मला आँगन में चुपचाप सिर पर हाथ रखकर बैठी थी। अन्य लड़कों का पता नहीं था, केवल लड़की अपनी माँ के पास खड़ी थी। अँगीठी अभी जली नहीं थी। आँगन गंदा पड़ा था। बर्तन बिना मले हुए रखे थे। सारा घर जैसे काट रहा था।

– क्या बात है ? – मैंने पूछा।

बहादुर भाग गया।

भाग गया! क्यों ?

पता नहीं ! आज तो कुछ हुआ भी नहीं था। सबेरे से ही बड़ा प्रसन्न था। बराबर माता जी-माता जी किए जा रहा था। दोपहर में खाना खाया। उसके बाद आँगन से सिल-बट्टा लेकर बरामदे में रखने जा रहा था कि सिल हाथ से छूटकर गिर गई और दो टुकड़े हो गई। शायद इसी डर से वह भाग गया कि लोग मारेंगे। पर, मैं इसके लिए उसको थोड़े कुछ कहती ? क्या बताऊँ, मेरी किस्मत में आराम ही नहीं…

कुछ ले गया ?

यही तो अफ़सोस है। कोई भी सामान नहीं ले गया है। उसके कपड़े, उसका बिस्तरा, उसके जूते – सभी छोड़ गया है। पता नहीं उसने हमें क्या समझा ? अगर वह कहता, तो मैं उसे रोकती थोड़े? बल्कि उसको खूब अच्छी तरह पहना-ओढ़ाकर भेजती, हाथ में उसकी तनखाह के रुपए रख देती। दो-चार रुपए और अधिक दे देती। पर वह तो कुछ ले ही नहीं गया..

और वे ग्यारह रुपए ?

अरे, वह सब झूठ है। मैं तो पहले ही जानती थी कि वे लोग बच्चों को कुछ देना नहीं चाहते, इसलिए अपनी गलती और लाज छिपाने के लिए यह प्रपंच रच रहे हैं। उन लोगों को क्या मैं जानती नहीं? कभी उनके रुपए रास्ते में गुम हो जाते हैं कभी वे गलती से घर ही पर छोड़ आते हैं। मेरे कलेजे में तो जैसे कुछ हौंड़ रहा है। किशोर को भी बड़ा अफसोस है। उसने सारा शहर छान मारा, पर बहादुर

नहीं मिला। किशोर आकर कहने लगा – अम्माँ, एक बार भी अगर बहादुर आ जाता तो मैं उसको पकड़ लेता और कभी जाने न देता। उससे माफी माँग लेता और कभी नहीं मारता। सच, अब ऐसा नौकर कभी नहीं मिलेगा। कितना आराम दे गया वह। अगर वह कुछ चुराकर ले गया होता, तो संतोष हो जाता…

निर्मला आँखों पर आँचल रखकर रोने लगी। मुझे बड़ा क्रोध आया। मैं चिल्लाना चाहता | था, पर भीतर ही भीतर मेरा कलेजा जैसे बैठ रहा हो। मैं वहीं चारपाई पर सिर झुका | कर बैठ गया। मुझे एक अजीब-सी लघुता का अनुभव हो रहा था। यदि मैं न मारता, तो शायद वह न जाता।

मैंने आँगन में नज़र दौड़ाई । एक ओर स्टूल पर उसका बिस्तरा रखा था। अलगनी पर उसके कुछ कपड़े टँगे थे। स्टूल के नीचे वह भूरा जूता था, जो मेरे साले साहब के लड़के का था। मैं उठकर अलगनी के पास गया और उसके नेकर की जेब में हाथ डालकर उसका सामान निकालने लगा वही गोलियाँ, पुराने ताश की गड्डी, खूबसूरत पत्थर, ब्लेड, कागज़ की नावें

कथावस्तु

ज़रा सोचिए, लेखक ने इस कहानी का विषय जीवन के किस हिस्से से उठाया है यानी इसकी कथावस्तु क्या है? हम देखते हैं कि कहानी का एक पात्र यह कहानी सुना रहा है। उसे हम वाचक कहेंगे। उसी ने अपने परिवार और रिश्तेदारों के माध्यम से कम उम्र के घरेलू नौकरों के प्रति मध्यवर्ग के व्यवहार का चित्रण किया है। हमारे समाज का वह खाता-पीता हिस्सा, जो बहुत अमीर तो नहीं है, लेकिन गरीब भी नहीं है – मध्यवर्ग कहलाता है। वाचक का परिवार मध्यवर्गीय है।

हम कह सकते हैं कि वाचक और उसके परिवार द्वारा कहानी के शुरू में बहादुर को सताया नहीं जाता, बल्कि उसकी चिंता की जाती है। यह भी कहा गया है कि इस घर में नौकरों को घर के बच्चों की तरह रखा जाता है। बहादुर के आने से घर का माहौलभी उत्साहपूर्ण है। बहादुर की चिंता करने का एक और कारण है, वह है दूसरों के सामने अपने को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना। इसीलिए निर्मला बहादुर के प्रति अपनी चिंताके बारे में लोगों को सुना-सुनाकर बहुत कुछ कहती है।

कहानी शुरू कैसे होती है – इस पर विचार करें, तो पाएंगे कि वाचक अचानक अपने गंभीर हो जाने की बात कहता है, बहादुर का नाम नहीं लेता, उसके लिए ‘वह’ का प्रयोग करता है। फिर, निर्मला की चमकती हुई दृष्टि का उल्लेख करता है। लेखक ने पूरी सूचनाएँ देने के स्थान पर केवल इस प्रकार के संकेत ही क्यों दिए? इस प्रकार की प्रस्तुति के कारण हम इस कहानी को पढ़ने के लिए प्रेरित होते हैं।

अगले दो अनुच्छेदों में हमें कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। ये हमारी कुछ जिज्ञासाओं को शांत करती हैं। जैसे, नौकर रखने की ज़रूरत क्यों पड़ी? बहादुर कौन है? कहाँ से आया है ? क्यों आया है? उसका परिवार कैसा है? आदि । यहाँ पर एक संकेत ऐसा भी है, जिसका विकसित रूप हम कहानी में आगे देखते हैं कि बहादुर की माँ बहुत गुस्सेवाली है। वह बहादुर के काम न करने पर उसे मारती है। बहादुर की माँ भैंस के कारण बहादुर को इतना क्यों मारती है? कारण है कि बहादुर काम में सहायता तो नहीं करता, उल्टे उस भैंस को भी मारता है, जो परिवार का पालन-पोषण करने में सहायक है। बहादुर बच्चा है, इस बात को समझ नहीं पाता। उसे लगता है कि माँ को उससे ज्यादा भैंस प्यारी है। उसे माँ का मारना बहुत बुरा लगता है और वह घर से भाग जाता है।

कहानी में ऐसी स्थिति आगे भी आती है। छोटी-छोटी गलतियों पर किशोर उसे मारता है। वाचक झूठे रिश्तेदारों के कारण बहादुर की पिटाई करता है। तीनों स्थितियों में | बहादुर पिटाई होने के कारण बहुत दुखी होता है।

इस कहानी की तीन घटनाओं से आप भी बहुत दुखी हुए होंगे। इन तीनों का संबंध बहादुर के पिटने से है। कहानी में वाचक के बेटे किशोर के उल्लेख के बाद परिवर्तन तेजी से होने लगता है। उससे पहले सब कुछ ठीक-ठाक दिखाई देता है। वाचक के घर में बहादुर को सबसे पहले किशोर पीटता है। दूसरी घटना वह है, जब निर्मला बहादुर के लिए रोटियाँ बनाना बंद कर देती है। मोहल्ले की किसी महिला ने उसे समझा दिया है कि अच्छा खाने से नौकरों की आदत बिगड़ जाती है। यहाँ पर बहादुर द्वारा अपनी रोटियाँ स्वयं न बनाने पर वह उसे मारती भी है। यहीं हम एक और संकेत देख सकते हैं, जो बहादुर के इस कथन में निहित है- “मेरी माँ भी सारे घर की रोटियाँ बनाकर मुझसे रोटियाँ सेंकवातीथी।”

इसका अर्थ हुआ कि बहादुर की माँ उसे मारती भी थी और उसके लिए रोटियाँ | भी नहीं बनाती थी, इसलिए वह घर से भागा। यही स्थितियाँ वाचक के घर में भी बन रही हैं, लेकिन अभी बहादुर भागता नहीं है। वह प्रसन्न दिखने की कोशिश करता है, पर अब वह पहले वाला बहादुर नहीं रहता। उसे हर समय भय बना रहता है कि कहीं पिटाई न हो जाए। इस कारण वह अधिक गलतियाँ करने लगता है।

आइए, अब तीसरी घटना देखते हैं, जो इस कहानी के अंत को तय कर देती है। इस “घटना में खुद वाचक बहादुर को पीटता है। क्यों पीटता है-यह आप पढ़ ही चुके हैं।

वाचक द्वारा पीटे जाने का बहादुर पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। उसका चेहरा भय से काला पड़ जाता है। आँखों में आँसू आ जाते हैं। बहादुर को पीटा तो किशोर और निर्मला ने भी है। पिटने पर वह पहले भी रोया है, लेकिन उसे भय पहली बार लगा है। आँखों से आँसू गिरने का वर्णन भी पहली बार है और उस पर चोरी का आरोप भी पहली बार ही लगा है। बहादुर अंदर तक दुखी भी यहीं होता है। इसके पहले उसे इस बात का संतोष था कि कम-से-कम घर का मालिक तो उसे नहीं मारता, लेकिन अब तो वह भी मारने लगा है- बिना किसी गलती के, दूसरों के कहने पर ।

बहादुर के भागने के पीछे बहुत बड़ा कारण वाचक द्वारा पीटा जाना है।

कहानी के अंतिम तीन-चार अनुच्छेद बहुत ही मार्मिक हैं, जिनमें पूरे परिवार के पश्चाताप का उल्लेख है। निर्मला और किशोर को भी अपनी गलतियों का अहसास होता है, लेकिन उस अहसास में सबसे अधिक उनके भीतर का वह दुख दिखाई देता है कि बहादुर के चले जाने के बाद घर के सारे काम अब उन्हें ही करने पड़ेंगे। अगर उसके भाग जाने का दुख सचमुच किसी को है, तो वह है – वाचक । उसे लगता है कि यदि वह बहादुर को न मारता, तो बहादुर कभी न भागता। वह बहादुर के भागने पर उतना दुखी नहीं है, जितना उसके भागने के कारण से दुखी है।

बहादुर भागते-भागते भी अपने निर्दोष होने का सबूत दे जाता है। जब वह अपने घर से भागा था, तो कम-से-कम दो रुपए तो लेकर भागा था। यहाँ तो वह अपनी तनख्वाह के पैसे और अपना सामान भी छोड़ गया।

वाचक को लगता है कि उसने बहादुर की पिटाई करके बहुत बड़ा अपराध किया है। वह अपनी ही नज़रों में खुद को छोटा महसूस करता है। अंतिम अनुच्छेद में वह बहादुर के नेकर की जेब से वही सामान निकालता है, जिस सामान को देखकर बहादुर अपने परिवार, अपनी माँ, अपने गाँव, अपने देश को याद करता था। इस घटना से दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली तो यह कि बहादुर स्वाभिमानी है। वही बहादुर, जिस पर चोरी का आरोप लगाया गया था, घर का सामान तो क्या, अपनी वे चीजें भी छोड़ जाता है, जो उसे बेहद प्रिय थीं। दूसरी बात यह कि घर में काम करने वाला नौकर भी आदमी होता है, कोई वस्तु नहीं, जिसका मनमर्जी इस्तेमाल करते रहो। उसके भी दिल होता है। वह भी अपने प्रति अच्छे-बुरे व्यवहार को समझता है, सोचता है, महसूस करता है। वाचक इस घटना के माध्यम से यह दिखाना चाहता है कि नौकर के प्रति बुरा व्यवहार और निर्दयता किस तरह अंततः पछतावे का कारण बनते हैं।

पात्र और चरित्र-

आइए, अब इस कहानी के प्रमुख पात्रों के कार्यों के आधार पर उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को समझने का प्रयास करते हैं। देखते हैं कि लेखक ने उनका चरित्र-चित्रण किस प्रकार किया है।

कहानी का मुख्य पात्र बहादुर है, इसीलिए कहानी का शीर्षक ‘बहादुर’ रखा गया है। | वह बारह-तेरह साल का है। छोटे कद का मोटा, गोल-मटोल है। रंग गोरा है। चेहरा चपटा है। आपने नेपाल के लोगों या पहाड़ी क्षेत्र में रहने वालों को देखा ही होगा, वैसा ही है बहादुर । उसकी आँखें छोटी-छोटी हैं, जिन्हें वह जल्दी-जल्दी झपकाता रहता है। | उसने सफेद नेकर, आधी बाँह की सफेद कमीज़ और भूरे रंग के जूते पहन रखे हैं। गलेमें रूमाल बाँध रखा है। यह वर्णन शब्दों के माध्यम से एक चित्र उपस्थित करता है। | बहादुर की आकृति हमारे सामने स्पष्ट हो जाती है, जैसे हम उसे देख रहे हों।

अब उन विशेषताओं को देखें, जिनके कारण बहादुर हमें अच्छा लगता है।

बहादुर बच्चा है। उसमें बचपन का भोलापन भी है और संवेदनशीलता भी। यानी, सुख | और दुख का उस पर तुरंत असर होता है। उसके व्यक्तित्व की सभी विशेषताओं काआधार यही संवेदनशीलता है। वह इसीलिए अपने घर से भागता है। उसकी माँ बहुत गस्सैल थी. उसे बहत मारती थी- यह बहादुर को बुरा लगता था। पीटकर उससे काम नहीं करवाया जा सकता। आप देखेंगे कि वाचक के घर में भी वह काम करने में | गलतियाँ तभी करता है, जब उसे पीटा जाता है। उसे न तो अपनी माँ का मारना समझ में आता है, न ही इस परिवार के लोगों का । वह चोरी के झूठे आरोप को भी सहन नहीं कर पाता। वाचक द्वारा पीटे जाने का उस पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत, जब बहादर को थोडा-सा भी प्यार मिलता है, तो वह बहत काम करता है। वह घर के लोगों का सम्मान करता है। निर्मला के स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखता है, उसे कोई काम नहीं करने देता। यहाँ तक कि वह निर्मला को माँ की तरह समझने लगता

बहादुर ईमानदार है। वाचक के यहाँ वह पूरी ईमानदारी से काम करता है। रिश्तेदार जब उस पर चोरी का आरोप लगाते हैं, तो वाचक कहता है – अरे नहीं, वह ऐसा नहीं है। जब कभी उसने दो-चार आने इधर-उधर पड़े देखे, तो उठाकर निर्मला के हाथ में दे दिए। जब वह वाचक के घर से भागता है, तो कुछ भी लेकर नहीं जाता। यहाँ तक कि अपने कपड़े, जूते, खेलने का सामान, तनख्वाह तक छोड़ जाता है।

बहादुर मेहनती और हँसमुख लड़का है। उसके आने के बाद वाचक के घर के लोगों को बहुत आराम मिलता है। अब कोई एक तिनका तक इधर से उठाकर उधर नहीं रखता। बहादुर घर के सारे काम करता है – घर की सफाई, कमरों में पोंछा, अँगीठी जलाना, चाय बनाना, कपड़े धोना, बर्तन साफ़ करना। इतना काम करने के बाद भी खाना बनाने की ज़िद करता है। बच्चा होते हुए भी रात को सबके सोने के बाद सोता है और सुबह सबसे पहले उठ जाता है; फिर भी वह हमेशा खुश रहता है, हँसता रहता है। उसे छेड़-छेड़कर सब हँसते हैं, लेकिन वह किसी की बात का बुरा नहीं मानता, सबको प्रसन्न रखता है।

आपने बहुत से चुस्त और फुर्तीले बच्चों को देखा होगा । बहादुर वैसा ही है। उसके बारे में एक जगह उल्लेख किया गया है कि वह फिरकी की तरह नाचता रहता था यानी काम के लिए घर में इधर से उधर दौड़ता रहता था। वह अपने गाँव में पेड़ों पर चढ़कर चिड़ियों के घोंसलों में हाथ डालकर उनके बच्चों को पकड़ता था और फल तोड़-तोड़कर खाता था। यहाँ, वाचक के घर में, भी दातून तोड़ने के लिए तुरंत पेड़ पर चढ़ जाता

बहादुर स्वाभिमानी है। किशोर द्वारा पिटाई को तो वह सहन कर लेता है, लेकिन ‘सूअर का बच्चा’ कहने पर काम करने से मना कर देता है। कोई उसके पिता को गाली दे, यह उससे सहन नहीं होता। उसके स्वाभिमान का पता हमें तब भी लगता है, जब निर्मला केवल उसी की रोटियाँ बनाना बंद कर देती है। अपनी रोटियाँ खुद न बनाने के कारण उसे निर्मला से मार भी खानी पड़ती है, लेकिन वह इस भेदभाव को सहन नहीं कर पाता और बिना भोजन किए सो जाता है।

उसके स्वाभिमान का संकेत तब भी मिलता है, जब वाचक उसे चोरी के आरोप के कारण मारता है। वाचक के अलावा सब उसे मारते हैं, पर वह घर से नहीं भागता, क्योंकि उसे विश्वास है कि वाचक उसे चाहता है। लेकिन, जब उसका यह विश्वास टूटता है, तो वह भाग जाता है।

बहादुर में परिवार के प्रति कर्तव्य-बोध भी है। घर से वह भाग आया है, लेकिन उसने घर से अपने संबंध तोड़े नहीं हैं। वह अपनी तनख्वाह के पैसे माँ के पास भेजने के लिए कहता है। कारण पूछने पर जवाब देता है – माँ-बाप का कर्जा तो जन्म भर भरा जाताहै।

वाचक

कहानी में दूसरा प्रमुख पात्र वाचक है। अगर आप ध्यान से देखें, तो उसके व्यक्तित्व के दो पक्ष दिखाई देंगे। उसमें मध्यवर्गीय व्यक्ति के गुण और दोष दोनों मिलेंगे। इसलिए उसके व्यक्तित्व का कोई पक्ष तो बुरा लगता है और कोई पक्ष अच्छा । पहला पक्ष तब सामने आता है, जब वह किशोर द्वारा पीटने और भद्दी गालियाँ देने पर

बहादुर को बचाता तो है, लेकिन उसका यह भी मानना है कि नौकर तो पिटते ही रहते हैं। पिता को गाली दिए जाने पर बहादुर काम करने से मना कर देता है, तो उसे हँसी आती है। निर्मला बहादुर को पीटती है, तो वह निर्मला को नहीं समझाता, उलटे बहादुर को ही डाँटते हुए कहता है कि ज्यादा रूठना-फूलना मुझे पसंद नहीं। रिश्तेदारों को खुश रखने के लिए यह जानते हुए भी कि बहादुर चोरी नहीं कर सकता, वह उसे पीटता

मध्यवर्ग की एक सीमा यह होती है कि वह कुछ कार्य दिखाने के लिए करता है। उसे लगता है कि इससे उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ेगी। बहादुर को घर में नौकरी पर रखना इसका प्रमाण है। इस वर्ग के बहुत से लोग दूसरों के कहे या दबाव में आ जाते हैं। निर्मला और वाचक भी ऐसे ही पात्र हैं। निर्मला पड़ोस की स्त्री के कहने पर बहादुर के लिए रोटियाँ बनाना छोड़ देती है और वाचक रिश्तेदार के कहने पर बहादुर पर चोरी | का शक करता है, उसे मारता है। वाचक के व्यक्तित्व का एक रूप और भी है। उसका पछतावा बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह पूरी कहानी ही उसके पछतावे पर लिखी गई है। इस कहानी में बहादुर मुख्य पात्र है, जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। इसमें निर्मला, किशोर और निर्मला के रिश्तेदार कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक हैं- ऐसे पात्रों को गौण पात्र कहते हैं। इन गौण पात्रों में से किशोर के विषय में आपने ज़रूर कुछ सोचा होगा। किशोर और बहादुर लगभग एक ही आयु के हैं। इस आयु-वर्ग के किशोरों में मूलतः समानता होती है लेकिन वातावरण, सामाजिक परिस्थिति, आर्थिक स्थिति, पारिवारिक स्थिति आदि के कारण व्यवहार में अंतर आ जाता है। दोनों में समानता यह है कि कोई फैसला लेते समय दोनों सोचते-विचारते नहीं।

 संवाद

पात्रों की बातचीत को संवाद कहा जाता है। संवाद कहानी के घटनाक्रम को आगे बढ़ाते हैं, चरित्रों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताते हैं और कहानी में नाटकीयता का गुण उत्पन्न करते हैं ।

‘बहादुर’ कहानी में संवाद अधिक नहीं हैं, क्योंकि वाचक पाठक से सीधे बात कर रहा है। एक के बाद एक घटनाओं की जानकारी वही देता है। उसी के कथन से पात्रों के व्यक्तित्व की विशेषताओं का पता लगता है। लेखक द्वारा संवाद तब दिए जाते हैं, जब उसे वाचक द्वारा कही गई बात का प्रमाण देना होता है। जैसे- बहादुर के व्यक्तित्व की विशेषता का पता निर्मला के इस कथन से लगता है- “सच, अब ऐसा नौकर नहीं मिलेगा। कितना आराम दे गया वह।”

एक स्थान पर बहादुर के घर में आने के बाद जो उत्साहपूर्ण वातावरण बनता है, उसका उल्लेख वाचक करता है, फिर मोहल्ले के बच्चों द्वारा बहादुर से कहे गए ऐसे वाक्य हमारे सामने रखता है – “ऐ! तुमने शेर देखा है?” ऐसे छोटे-छोटे संवाद बहादुर के प्रति बच्चों के उत्साह को तो बताते ही हैं, साथ ही इस ओर भी संकेत करते हैं कि मध्यवर्गीय परिवारों में बच्चों को शुरू से ही यह सिखा दिया जाता है कि नौकरों से किस तरह बात की जाती है।

  • देश काल और वातावरण

आपने कहानी पढ़ते समय ध्यान दिया होगा कि किशोर का बहादुर के प्रति कैसा व्यवहार है। किशोर के एक संवाद से भी इसका पता चल जाता है अगर एक काम

भी छूटा, तो मारते-मारते हुलिया टाइट कर दूंगा। साला, कामचोर, करता क्या है तू? बैठा-बैठा खाता है।”

रिश्तेदार के अंग्रेजी वाक्य “यू डू नॉट नो, दीज़ पीपुल आर एक्सपर्ट इन दिस आर्ट” में जो दृष्टिकोण है, वह बच्चों और किशोर को वही सिखाता है, जो उनके संवाद में दिखता है।

कभी-कभी वाचक दूसरों के संवादों को अपने शब्दों में कहता है। जैसे निर्मला नौकर न रखे जाने से दुखी है। वह जो कहती है, उसे वाचक इस प्रकार व्यक्त करता है – | “उसकी तरह अभागिन और दुखिया स्त्री और भी कोई इस दुनिया में होगी? वे लोग दूसरे होते हैं, जिनके भाग्य में नौकर का सुख होता है।” यह बात निर्मला ने कही होगी या सोची होगी, लेकिन वाचक इसे अपने शब्दों में कहकर निर्मला पर व्यंग्य करता है।

हम यह देखते हैं कि इस कहानी के अंत में संवाद अधिक हैं। यह कहानी का चरम बिंदु है, इसलिए नाटकीयता की सबसे अधिक ज़रूरत यहीं पर है। निर्मला के रिश्तेदार, | उसकी पत्नी और वाचक के संवादों में यह विशेषता मिलती है।

इस कहानी के वातावरण अथवा सामाजिक आधार या परिस्थितियों का उल्लेख करते समय हमें दो परिवारों की स्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए। एक है बहादुर का परिवार, दूसरा वाचक और उसके रिश्तेदार का । बहादुर के पिता की मृत्यु हो चुकी है। | उसकी माँ पूरे परिवार का पालन-पोषण करती है। कहानी में जिस तरह से बहादुर के घर का वर्णन है, उससे हम अनुमान लगा | सकते हैं कि वह निम्न वर्ग का है, यानी | गरीब । इसलिए बहादुर की माँ को बहादुर के खेलने-कूदने पर गुस्सा आता होगा। बहादुर भागकर जिस परिवार में पहुँचता है, वह एक मध्यवर्गीय परिवार है। ऐसे वातावरण में नौकरों के प्रति आम तौर पर लोगों का व्यवहार अच्छा नहीं होता। अगर नौकर | कम उम्र का है, तब तो उसे और ज्यादा | दुख सहना पड़ता है।

मध्यवर्ग के लोगों में सुविधाओं को प्राप्त | करने की होड़ लगी रहती है। उनके लिए नौकर टी. वी., फ्रिज, कार आदि की तरह एक सुविधा है। ये चीजें घर में जब नई-नई आती हैं, तो बड़ा खुशी का माहौल होता है।

धीरे-धीरे बात सामान्य हो जाती है। बहादुर के प्रति ऐसा ही व्यवहार होता है। बहादुर वाचक के परिवार के लिए घमंड और दिखावे का माध्यम है। बहादुर बहुत काम करता है। पोंछा लगाता है, सफाई करता है, बर्तन माँजता है, कपड़े धोता है। उसकी मेहनत से परिवार के लोगों को आराम मिलता है, फिर भी निर्मला उसके लिए रोटियाँ बनाना बंद कर देती है। कारण यह है कि मुहल्ले की किसी औरत ने निर्मला को समझा दिया है कि “महीन खाने से इन लोगों की आदत बिगड़ जाती है।’ ‘इन लोगों की’ यानी नौकरों की। यह वाक्य निम्नवर्ग के प्रति मध्यवर्ग की मानसिकता को दर्शाता है।

इसी तरह बहादुर के पीटे जाने पर वाचक सोचता है कि “कोई बात नहीं, नौकर तो पिटते रहते हैं।” यह भी इस ओर संकेत करता है कि मध्यवर्ग के लोग नौकरों को जानवरों की तरह समझते हैं। निर्मला के रिश्तेदार दवारा कहे गए अंग्रेजी वाक्य में भी मध्य और निम्नवर्ग के बीच के अंतर को देख सकते हैं। इस वाक्य से यह भी पता लगता है कि मध्यवर्ग का व्यक्ति कितना दिखावा करता है।