रैदास Nios Class 12th Hindi Chapter 2nd

आपसंत कवि कबीर की रचनाएँ माध्यमिक स्तर पर पढ़ चुके हैं। अब आपके ”सामने कबीर के ही समकालीन कवि रैदास की कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हैं।

सामूहिक जन-चेतना को जाग्रत करके, शोषित मानवता में नवीन स्फूर्ति का संचार करने वाले उच्चकोटि के विनम्र संतों में रैदास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आपने उस समय के धार्मिक आडंबरवादियों के प्रति क्षमा-भाव भी प्रकट किया। भक्ति-भाव में प्रतिक्षण आत्मविभोर रहते हुए भी रैदास ने दिव्य-द ष्टि से समय और समाज की आवश्यक माँगों को पहचान कर अपनी बात कही। संत रैदास की रचनाओं में भक्ति-भाव के दर्शन होते हैं।

उददेश्य

इस पाठ को पढ़ने व देखने के बाद आप

  • संत रैदास की निर्गुण भावधारा और विचारधारा पर टिप्पणी कर सकेंगे 
  • भक्ति-मार्ग में ऊँच-नीच, जाति-पाँति का भेद नहीं होता, इसे स्पष्ट कर सकेंगे 
  • कवि द्वारा प्रयुक्त भाषा की शिल्पगत विशेषताओं पर टिप्पणी कर सकेंगे।

पद

1. नरहरि ! चंचल है मति मेरी,

कैसे भगति करूँ मैं तेरी ||

तूँ मोंहि दे देखै, हौं तोहि देखूं, प्रीति परस्पर होई |

तूँ मोहिं देखै, तोहि न देखूँ, यह मति सब बुधि खोई |

सब घट अंतर रमसी निरंतर, मैं देखन नहिं जाना |

गुन सब तोर, मोर सब औगुन, कत उपकार न माना ||

मैं, तैं, तोरि-मोरि असमझि सौं, कैसे करि निस्तारा।

कह ‘रैदास’ कृष्ण करुणामय ! जै जै जगत-अधारा।।

ब्दार्थ –

  1. मति – बुद्धि
  2. भगति – भक्ति
  3. हौं – मैं
  4. घट –  जिव, प्राण
  5. रमसि  – निवास करते हैं
  6. निस्तार – छूटना
  7. मैं, तैं – अपना-पराया

सप्रसंग –

प्रस्तुत पद में कवि रैदास ने ईश्वर के निराकार रूप का वर्णन किया है, जिसका न आदि है न अंत | दूसरी ओर भक्त माया से बंधा रहने के कारण अत्यंत चंचल रहता है | भक्त की इसी विवशता का यहाँ वर्णन किया गया है |

व्याख्या  –

हे ईश्वर ! मेरी बुद्धि बहुत चंचल है, आप ही बताएँ कि मैं आपकी भक्ति किस प्रकार करूँ ? अर्थात मैं माया-जाल में फँसा होने के कारण हमेशा किसी-न-किसी मोह बंधन में बंधा रहता हूँ जिससे मैं पूरी तरह एकाग्र होकर ईश्वर की भक्ति में लीन नहीं हो पा रहा हूँ | यही मेरी मजबूरी है जिसे मैं आपके सामने व्यक्त कर रहा हूँ |

ईश्वर निराकार ( जिसका कोई आकर न हो ) है,  कवि निराकार ईश्वर को संबोधित कर कहता है कि तुम मुझे देख सकते हो क्योंकि तुम्हारी दृष्टि सर्वव्यापी है लेकिन मैं तुम्हें नहीं देख सकता क्योंकि तुम्हारा कोई रूप नहीं है तो भला भक्ति कैसे हो ?  यघपि मनोवैज्ञानिक नियम तो यही है कि जब हम एक दुसरे को देखते हैं, तो आकर्षण बढ़ता है, तभी प्रीति होती है | किसी को बिना देखे प्रीति कैसे हो सकती है |  इसलिए बिना तुम्हें देखे प्रीति करना तो चाहता हूँ लेकिन मति ( बुद्धि ) भ्रमित हो जाति है, प्रीति नही कर पा रहा हूँ | तुम सबके ह्रदय में सदैव विराजमान हो, तुम्हारे में गुण ही गुण है और मुझ जैसे माया-मोह में फँसे जीव में अवगुण ही अवगुण भरे हैं, यहाँ तक कि तुम्हारे द्वारा किए गए उपकार भी मुझ जैसे अवगुणी समझ नहीं पाता | मैं अपनी नासमझी के कारण हमेशा अपने-पराए, हमारे-तुम्हारे की माया में फँसा रहता हूँ  | भला तुम ही बताओ कि मैं अब उस द्वंद से कैसे छुटकारा पाऊं ? रैदास जी कहते हैं, हे करुणामय कृष्ण ! यह सारा संसार तुम्हारे ही सहारे चल रहा है, मैं तुम्हारी जय-जयकार करता हूँ  |

2. जिह कुल साधु बैसनौ होई |

बरन अबरन रंकु नहि ईसुरु बिमल बासु  जानिऐ जग सोइ ||

बरहमन बैस सूद अरु ख्यत्री डोम चंडार मलेछ मन सोइ |

होइ  पुनीत भगवत भजन ते आपु तारि तारे कुल दोइ ||

धनि सु गाउ धनि सो ठाउ धनि पुनीत कुटंब सभ लोइ |

जिनि पीआ सार रसु तजे आन रस होई रस मगन डारे बिखु खोइ ||

पंडित सुर छत्रपति राजा भगत बराबरी अउरु न कोई |

जैसे पुरैन पात रहै जल समीप भनि रविदास जनमे जगि ओइ || 

शब्दार्थ :-

  1. बरन अबरन –   सवर्ण अवर्ण
  2. तजे – त्यागना, छोड़ना
  3. बिखु  – विष
  4. खोई – खुही ( गन्ने के रस निकालने के बाद बचा हिस्सा )
  5. जिनि – जिसने
  6. ईसुरु – संपन्न
  7. पुरैन पात – कमल का पत्ता
  8. बिमल – पवित्र
  9. बासु  – गंध
  10.  धनि  – धन्य है
  11. गाउ  – गाँव
  12. ठाउ  – जगह, स्थान 
  13.  लोई – चमक, लोग, ज्वाला

प्रसंग –

इस पद द्वारा संत रैदास यह बताना चाहते हैं कि भक्ति मार्ग में जाति-पांति का कोई बंधन नही होता | नीच कही जाने वाली जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति जिसके हृदय में प्रेम भक्ति का संचार है, वह उस ब्राह्मण से कहीं अधिक अच्छा, जो भगवान की भक्ति के प्रति उदासीन है |

व्याख्या :- 

संत रैदास भक्ति की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जिस कुल में ईश्वर-भक्त जन्म ले वाही कुल उच्च और पवित्र कुल माना जाता है | चाहे वह गरीब कुल हो या अमीर | कहने का मतलब यह है की ईश्वर की दृष्टि में सच्चा भक्त वाही है जो अच्छे कर्म करने वाला है और सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति करता है |

कवि अपने विचार की पुष्टि में कहता है कि चाहे व्यक्ति किसी भी वर्ग अथवा जाति का क्यों न हो यदि वह सच्चे मन और पवित्र भाव से भगवान का भजन करे, तो उसे स्वयं तो मुक्ति मिलती ही है साथ ही उसके दोनों कुल ( माता-पिता ) मुक्ति पा जाते हैं | कवी के कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान् के भजन में बड़ी शक्ति है | धन्य है वह धरती, धन्य है वह स्थान,  धन्य हैं उसके पवित्र परिवार के लोग, जिसमें एक सच्चा भक्त जन्म लेता है | जिन भक्तों ने ईश्वर प्रेम रूपी रस पान कर लिया है, उन्हें सांसारिक रस में कोई आनंद नहीं आता | वह तो अपने प्रेम रूपी रस में ही मगन होकर सांसारिक माया रूपी विषाक्त आकर्षण को खोई के समान फेंक देते हैं |   

कवि भक्त की महत्ता बताते हुए कहता है कि पंडित, वीर, छत्रपति राजा कोई भी क्यों न हों, वह भक्त की बराबरी नहीं कर सकता | भक्त तो इन सबसे ऊपर है | कवि कहते हैं की इस संसार में उसी तरह रहना चाहिए जैसे जल में कमल का पत्ता रहता है, जो जल में ही पैदा होता है और जल से ही प्राण-शक्ति ग्रहण करते हुए भी जल की एक बूंद अपने ऊपर ठहरने नहीं देता और पानी के ऊपर ही तैरता रहता है | इसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में पैदा होकर भी,  इसी में रहते हुए संसार से निरपेक्ष रह कर भक्ति में लीन रहना चाहए |

3. प्रभुजी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।

प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा’ ।

शब्दार्थ :-

  1. बास – महक, सुगंध
  2. धन  – बादल
  3. जोति  – ज्योति
  4. बरै  –  जलती है

प्रसंग :-

प्रस्तुत पद में कवि रैदास ने ईश्वर भक्ति में स्वयं को समर्पित कर दिया है | रैदास ने ईश्वर को चंदन और स्वयं को पानी बताया है जिसकी सुगंध उनके अंग-अंग में समा गई है |

व्याख्य :-

संत रैदास जी कहते है कि मेरे मन में जो राम नाम की रट लगी है जो अब नही छुट सकती है | इसलिए हे प्रभु जी आप चंदन हैं और मै पानीं, जैसे चंदन अपनी खुशबू पानी में छोड़ देती है ठीक उसी प्रकार आपकी खुशबु मेरे अंग-अंग में समा गई है | प्रभु जी आप बदल के समान हो और मैं मोर के, जैसे मोर बदल को देख कर ख़ुशी से झूम उठता है  वैसे ही मैं आपके दर्शन पाकर खुश हो जाता हूँ | जैसे चकोर चन्द्रमा की ओर निहारता रहता है ठीक उसी प्रकार मैं भी आपकी रह देखता रहता हूँ |

प्रभु जी आप दीपक के समान हो जो दिन रात अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित करता है और में उस बाटी के समान हूँ जो दिन रात उसमे जलता रहता है, अर्थात हे प्रभु मैं आपकी भक्ति में लीन होकर दिन रात जलता रहता हूँ | प्रभु जी अप मोती के समान हो और मैं उसमे पिरोए जाने वाले धागे के समान हूँ, जैसे मोती अपने प्रकाश से सब को उज्वल कर देता हैं, और उसमे लगा हुआ धागा उसके प्रकश में दबा रहता है मै उसी धागे के समान हूँ | अंतिम पंक्ति में रैदास जी कहते हैं,  हे प्रभु आप मेरे स्वामी है और मैं आपका दास जिस प्रकार दास अपने स्वामी के लिए सब कुछ निछावर कर देता है ठीक उसी प्रकार मेने अपने जीवन को आपके ऊपर निछावर कर दिया है |

शिल्प सौन्दर्य

  • सभी पद राग-रागनियों में बँधे हुए हैं 
  • सभी पद ब्रजभाषा में रचित हैं |
  • पदों में पूर्वी अवधी के शब्दों के प्रयोग, जैसे – मति, बुछि, गन, तोर आदि से अवधी का पुट आ गया है।
  • खड़ी बोली की विभक्तियों तथा उर्दू-फारसी के शब्दों का प्रयोग मिलता है, जैसे – गरीब, निवाजु आदि
  • रैदास ने भावों की अभिव्यक्ति के लिए उपमा, रूपक, दृष्टांत  आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।

दोहे

हरि सा हीरा  छाड़ि करि करैं आन की आस ।

ते नर जमपुरि जाइसी सति भाषै रैदास ।।

शब्दार्थ :-

  1. जमपुरि  – यमपुर/ मृत्यु का घर
  2. सति – सच
  3. भाषै – कहते हैं

प्रसंग :-  प्रस्तुत दोहे में कवि रैदास ने ईश्वर भक्ति की महिमा का गुणगान किया है |

व्याख्या :-

कवि रैदास जी कहते हैं कि ईश्वर-भक्ति जैसा हीरा बड़े यत्नों से मिलता है | उसे छोड़ने से किसी अन्य सांसारिक मोह-माया की ओर आकर्षित होने वाला व्यक्ति यमलोक ही जाएगा | उसे स्वर्ग या इस संसार से मोक्ष की कामना नहीं करनी चाहिए अर्थात संसार में केवल ईश्वर भक्ति ही ऐसी अमूल्य वास्तु है जिसके सामने सभी सांसारिक वस्तुएं फीकी हैं | यदि हम सांसारिक मोह-माया में डूबे रहें, तो यह निश्चित है की मृत्यु के बाद हमारा दुबारा इस लोक में आना-जाना बना रहेगा अर्थात बार-बार पृथ्वी पर जन्म लेना होगा | संत रैदास जी कहते है कि यदि मुक्ति प्राप्त करनी है, और बार-बार जन्म लेने के चक्र से बचना है, तो उसका एक ही रास्ता है –ईश्वर की भक्ति | 

रैदास कहै जाकै रिदै रहै रैंनि दिन राम ।

सो भगता भगवान समि क्रोध न व्यापै कांम।।

शब्दार्थ :-

  1. रिदै   – हृदय
  2. समि –समान
  3. व्यापै – फैलना

प्रसंग – 

इस दोहे में कवि रैदास ने भक्ति की महत्ता बताई है सदाचरण के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को त्यागना योग्य माना गया है |

व्याख्या :-

संत रैदास के विचार से जिसके हृदय में रात-दिन राम का नाम है, राम का वास है,  वह भक्त भगवान् के समान है | ऐसे भक्त को काम क्रोध आदि की मय नहीं सताती क्योंकि वह इन सभी जंजालों से अपने को मुक्त करके स्वयं को नियंत्रित करके ईश्वर भक्ति के परम पद पर पहुंच चूका है |  तात्पर्य यह है कि भक्ति-मार्ग पर चल कर भक्त भगवान् की श्रेणी में पहुँच जाता है, यह भक्ति की महिमा है | इस उच्च पद पर पहुँचने के लिए मानव के जीवन भक्ति के मार्ग पर चलना ही श्रेयस्कर है |

जा देषें घिण उपजै नरक कुंड है वास ।

प्रेम भगति तें उधरे प्रगट जन रैदास ।।

शब्दार्थ :-

  1. देषें  – देखना
  2. घिण – घृणा
  3. वास – रहना

प्रसंग :-

रैदास ने समाज में प्रचलित जाति प्रथा के कारण कुछ वर्णों में व्याप्त हीन-ग्रंथि को उखाड़ फेंकने के लिए भक्ति का सहारा लिया | समाज के आडंबरवादियों को उन्होंने यह समझाने की कोशिश कि मात्र किसी जाति विशेष में जन्म लेने से कोई व्यक्ति ऊँचा-नीचा नहीं हो सकता | उसके बड़प्पन की कसौटी उसका चिंतन, आचरण और कर्म है | उसी ओर संकेत से वह इस दोहे अपने विचार प्रकट करते हैं |

व्याख्या –

सामाजिक दृष्टि से नीची कही जाने वाली जातियाँ, जिन्हें देखकर ही उच्च वर्ग के लोग घृणा से मुख मोड़ लेते हैं, वे लोग जिन बस्तियों में रहते हैं वे नरक के समान गंदी हैं – किंतु उन्हीं में से कोई भी मनुष्य ईश्वर भक्ति और प्रेम के बल पर अपने चिंतन और आचरण से प्रभु का भक्त भी बन सकता है। उदाहरण देते हुए कहते हैं, कि रैदास स्वयं भक्ति कर इससे उबर चुके हैं अर्थात् रैदास (जिनको निम्न जाति में पैदा होने का बोध सदा ही सताता रहा) निम्नकुल में पैदा होने के कारण सदैव घृणा के पात्र रहे, लोगों की दृष्टि में उनका निवास नरक कुंड था (क्योंकि वहाँ दिन-रात चमड़े की सडाँध से वातावरण दूषित रहता था) वहीं रहकर स्वयं रैदास ईश्वर-भक्ति के बल पर समाज के लिए आदर्श बनकर प्रकट हुए। कवि के कहने का यही तात्पर्य है कि – “जाति-पाँति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।”