गिल्लू Class 10th Hindi Chapter 3rd

पिछले पाठों में आप एक कहानी और कुछ दोहे पढ़ चुके हैं। आइए, अब एक नई साहित्य विधा रेखाचित्र पढ़ते हैं। आप जानते हैं कि मनुष्य और दूसरे जीवों का संबंध कितना महत्त्वपूर्ण है। कई बार पशु-पक्षी या अन्य प्राणी अपने प्रेम भरे व्यवहार, अपनेपन और समझदारी से हमें प्रभावित कर देते हैं। उनके साथ अच्छा व्यवहार करें, तो वे भी हमें अपना मानने लगते हैं, हमारे सुख-दुख के साथी बन जाते हैं। आपने देखा होगा कि पशु-पक्षी या कोई अन्य जीव किसी व्यक्ति से बहुत घुल-मिल जाता है, वह व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। उसके न रहने पर, उसे याद करके व्यक्ति बहुत दुखी होता है। यह रेखाचित्र एक छोटे-से प्राणी- गिलहरी की याद में लिखा गया है।

उद्देश्य

इस पाठ को पढ़ने व देखने के बाद आप

  • मनुष्य और पशु-पक्षी तथा अन्य जीवों के परस्पर संबंध का उल्लेख कर सकेंगे
  • वात्सल्य तथा ममता जैसे भावों का वर्णन कर सकेंगे
  • मन को छूने वाले स्थलों के सकारात्मक प्रभाव का उल्लेख कर सकेंगे
  • इस रेखाचित्र की विशेषताओं और भाषा-शैली पर टिप्पणी कर सकेंगे
  • अपने संपर्क में आए मनुष्यों और अन्य प्राणियों के व्यवहार के विषय में लिख सकेंगे।

सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। इसे देख कर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिप कर बैठता था और फिर | मेरे निकट पहुँचते ही कंधे पर कूद कर मुझे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज | रहती थी, पर आज उस लघुप्राण की खोज है।

परंतु वह तो अब तक इस सोनजुही की जड़ में मिट्टी होकर मिल गया होगा। कौन | जाने स्वर्णिम कली के बहाने वही मुझे चौंकाने ऊपर आ गया हो। | अचानक एक दिन सबेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा, दो कौवे एक गमले के चारों ओर चोंचों से छुआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुंडि भी विचित्र पक्षी है- एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, | अति अवमानित हमारे बेचारे पुरखे न गरुड़ के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के, उन्हें | पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना ही नहीं, हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी अपने आने का मधु संदेश इनके कर्कश स्वर में ही देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौवा और काँव-काँव करने को अवमानना के अर्थ | में ही प्रयुक्त करते हैं। | 

मेरे काकपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीवार की संधि में छिपे एक | छोटे-से जीव पर मेरी दृष्टि रुक गई। निकट जाकर | देखा, गिलहरी का छोटा-सा बच्चा है, जो संभवतः घोंसले से गिर पड़ा है और अब कौवे जिसमें सुलभ आहार खोज रहे हैं। काकद्वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए | बहुत थे। अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले से चिपका पड़ा | था। 

सबने कहा, कौवे की चोंच का घाव लगने के बाद यह बच नहीं सकता, अतः इसे ऐसे ही रहने दिया जावे । परंतु मन नहीं माना- उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में लाई, फिर रुई से रक्त पोंछकर घावों पर पेन्सिलिन का मरहम लगाया । रुई की पतली बत्ती दूध में भिगोकर जैसे-तैसे उसके नन्हे से मुँह में लगाई, पर मुँह खुल न सका और दूध की बूंदें दोनों ओर ढुलक गईं।

गिल्लू Class 10th Hindi Chapter 3rd

कई घंटे के उपचार के उपरांत उसके मुँह में एक बूंद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन वह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उँगली अपने दो नन्हे पंजों से पकड़ कर, नीले काँच के मोतियों जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा। तीन-चार मास में उसके स्निग्ध रोएँ, झब्बेदार पूँछ और चंचल चमकीली आँखें सबको विस्मित करने लगीं।

हमने उसकी जातिवाचक संज्ञा को व्यक्तिवाचक का रूप दे दिया और इस प्रकार हम उसे गिल्लू कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हल्की डलिया में रुई बिछा कर उसे तार से खिड़की पर लटका दिया। वही दो वर्ष गिल्लू का घर रहा। वह स्वयं हिला कर अपने घर में झूलता और अपनी काँच के मनकों-सी आँखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था। परंतु उसकी समझदारी और कार्यकलाप पर सबको आश्चर्य होता था।

जब मैं लिखने बैठती, तब अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी कि उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।वह मेरे पैर तक आकर सर्र से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेज़ी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता, जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती।

कभी मैं गिल्लू को पकड़ कर एक लंबे लिफाफे में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघुगात लिफाफे के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत | स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज़ पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली | आँखों से मेरा कार्यकलाप देखा करता।

भूख लगने पर चिक्-चिक् करके मानो वह मुझे सूचना देता और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफाफे से बाहर वाले पंजों से पकड़ कर उसे कुतरता रहता। | फिर गिल्लू के जीवन का प्रथम बसंत आया। नीम-चमेली की गंध मेरे कमरे में हौले-हौले | आने लगी। बाहर की गिलहरियाँ खिड़की की जाली के पास आकर चिक्-चिक् करके न जाने क्या कहने लगीं। |

गिल्लू को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झाँकते देख कर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है। मैंने कीलें निकालकर जाली का एक कोना खोल दिया और इस मार्ग से गिल्लू ने बाहर जाने पर सचमुच ही मुक्ति की सांस ली। इतने छोटे जीव | को घर में पले कुत्ते-बिल्लियों से बचाना भी एक समस्या ही थी।आवश्यक कागज-पत्रों के कारण मेरे बाहर |

जाने पर कमरा बंद ही रहता है। मेरे कॉलेज से लौटने पर जैसे ही कमरा खोला गया और | मैंने भीतर पैर रखा, वैसे ही गिल्लू अपने जाली | के द्वार से भीतर आकर मेरे पैर से सिर और | सिर से पैर तक दौड़ लगाने लगा। तब से यह | नित्य का क्रम हो गया। |

मेरे कमरे से बाहर जाने पर वह भी खिड़की | की खुली जाली की राह बाहर चला जाता और दिन भर गिलहरियों के झुंड का नेता बना, | हर डाल पर उछलता-कूदता रहता और ठीक चार बजे वह खिड़की से भीतर आकर अपने | झूले में झूलने लगता। मुझे चौंकाने की इच्छा उसमें न जाने कब और कैसे उत्पन्न हो गई थी। कभी फूलदान के फूलों में छिप जाता, कभी परदे की चुन्नट में और कभी सोनजुही की पत्तियों में। |

मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं और उनका मुझसे लगाव भी कम नहीं है, परंतु उनमें से | किसी को मेरे साथ मेरी थाली में खाने की हिम्मत हुई है, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता। | गिल्लू इनमें अपवाद था। मैं जैसे ही खाने के कमरे में पहुँचती, वह खिड़की से निकलकर आँगन की दीवार, बरामदा पार करके मेज़ पर पहुँच जाता और मेरी थाली में बैठ जाना चाहता। बड़ी कठिनाई से मैंने उसे थाली के पास बैठना सिखाया, जहाँ बैठकर वह मेरी थाली में से एक-एक चावल उठाकर बड़ी सफाई से खाता रहता। काजू उसका प्रिय खाद्य था और कई दिन काजू न मिलने पर वह अन्य खाने की चीजें या तो लेना बंद कर देता था या झूले से नीचे फेंक देता था।

उसी बीच मुझे मोटर-दुर्घटना में आहत होकर कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा । उन दिनों जब मेरे कमरे का दरवाजा खोला जाता, गिल्लू अपने झूले से उतर कर दौड़ता और फिर किसी दूसरे को देख कर तेजी से अपने घोंसले में जा बैठता। सब उसे काजू दे जाते, परंतु अस्पताल से लौटकर जब मैंने उसके झूले की सफाई की तो उसमें काजू भरे मिले, जिनसे ज्ञात होता था कि वह उन दिनों अपना प्रिय खाद्य कितना कम खाता रहा।

मेरी अस्वस्थता में वह तकिये पर सिरहाने बैठ कर अपने नन्हे-नन्हे पंजों से मेरे सिर और बालों को इतने हौले-हौले सहलाता रहता कि उसका हटना एक परिचारिका के हटने के समान लगता।

गर्मियों में जब मैं दोपहर में काम करती रहती तो गिल्लू न बाहर जाता, न अपने झूले में बैठता। उसने मेरे निकट रहने के साथ गर्मी से बचने का सर्वथा नया उपाय खोज निकाला था। वह मेरे पास रखी सुराही पर लेट जाता और इस प्रकार समीप भी रहता

और ठंडक में भी रहता। गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती, अतः गिल्लू की जीवन-यात्रा का अंत आ ही गया। दिन भर उसने न कुछ खाया और न बाहर गया। रात में अंत की यातना में भी वह मेरी वही उँगली पकड़कर हाथ से चिपक गया, जिसे उसने अपने बचपन की मरणासन्न स्थिति में पकड़ा था।

पंजे इतने ठंडे हो रहे थे कि मैंने जाग कर हीटर जलाया और उसे उष्णता देने का प्रयत्न किया। परंतु प्रभात की प्रथम किरण के स्पर्श के साथ ही वह किसी और जीवन में जागने के लिए सो गया।

उसका झूला उतार कर रख दिया गया और खिड़की की जाली बंद कर दी गई है, परंतु गिलहरियों की नयी पीढ़ी जाली के उस पार चिक-चिक करती ही रहती है और सोनजुही पर बसंत आता ही रहता है। सोनजुही की लता के नीचे गिल्लू को समाधि दी गई है- इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी- इसलिए भी कि उस लघुगात का, किसी वासंती दिन, जुही के पीताभ छोटे फूल में खिल जाने का विश्वास मुझे संतोष देता है।

आइए समझें

आपने ध्यान दिया होगा कि इस पाठ में गिल्लू के पूरे जीवन की कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण बातों का संकेतों में उल्लेख किया गया है, जिनसे उसकी एक तस्वीर हमारे सामने उभर आती है। जी हाँ, ठीक उसी तरह, जैसे भूगोल विषय में आप कुछ लाइनों के माध्यम से यह जान जाते हैं कि यह भारत है या श्रीलंका या नेपाल या दिल्ली या उत्तर प्रदेश । इसे आप ख़ाका, स्केच या रेखाचित्र कहते हैं। ठीक उसी तरह जब पूरे विस्तृत विवरण की जगह कुछ ख़ास-ख़ास बातों का उल्लेख करके लेखक किसी के विषय में लिखते हैं, तो उसे साहित्य में ‘रेखाचित्र’ कहते हैं। जब इस रेखाचित्र में आत्मीय संबंध भी झलकने लगे तो वह ‘संस्मरण’ विधा के नज़दीक पहुँचने लगता है। इसीलिए, ऐसे रेखाचित्र को ‘संस्मरणात्मक रेखाचित्र’ कहते हैं। ‘गिल्लू’ एक संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।

आपने प्रायः पेड़ों पर, घर के आस-पास या पार्क में गिलहरियों को उछलते-कूदते देखा होगा। आप इस तरह के प्राणियों को अक्सर देखते हैं। उनके भीतर भी कुछ संवेदनाएँ होती हैं। उनके साथ हमारा जैसा व्यवहार होता है, उसी के अनुसार वे भी हमारे साथ व्यवहार करते हैं।

प्रस्तुत रेखाचित्र ‘गिल्लू’ की लेखिका महादेवी वर्मा हैं। महादेवी वर्मा को पशु-पक्षियों से बहुत लगाव था। वे उन्हें अपने परिवार का अंग मानती थीं और उनके साथ आत्मीयता का अनुभव करती थीं। पशु-पक्षियों पर उनके कई रेखाचित्र हैं, जैसे- ‘गौरा’, जो एक गाय के बारे में है; ‘नीलकंठ’, जो एक मोर के बारे में है और ‘सोना’, जो एक हिरन पर है |

आइए, देखें कि लेखिका ने इस लघुप्राण जीव अर्थात् छोटे-से प्राणी गिल्लू की संवेदनशीलता को किस प्रकार हमारे सामने उभारा है। सुविधा के लिए हम इस पाठ को पाँच अंशों में बाँटकर पढ़ते हैं।

अंश-1

आइए, इस पाठ के पहले अंश- “सोनजुही में आज ……… इधर-उधर देखने लगा।” को एक बार फिर ध्यानपूर्वक पढ़ लें।

रेखाचित्र के आरंभ में लेखिका अपने बगीचे में ताज़ा खिली हुई सोनजुही की पीली कली को देखकर पुरानी यादों में खो जाती है। सामान्यतः ऐसा होता है कि किसी वस्तु या स्थान के साथ हमारी यादें जुड़ी होती हैं और जब हम उन्हें देखते हैं तो अनायास ही वे यादें ताजा हो जाती हैं और हम अतीत में खो जाते हैं। वे यादें हमारे स्मृति-पटल पर सिनेमा की तरह उभरने लगती हैं। हम उनमें ऐसे डूब जाते हैं कि उस समय के सुख-दुख के भाव हमें आज भी घेरने लगते हैं। यहाँ लेखिका के साथ भी ऐसा ही हुआ है |

एक समय था, जब लेखिका को सोनजुही बहुत आकर्षक और सुंदर लगती थी, किंतु गिल्लू उसके मन पर ऐसी अमिट छाप छोड़ जाता है कि उसे भुला पाना उसके लिए नामुमकिन हो जाता है। उसकी याद सोनजुही से जुड़ी है, क्योंकि वह छोटा-सा जीव उसी की छाया में बैठा करता था और नजदीक आते ही लेखिका के कंधे पर कुद उसे चौंका देता था। लेखिका गिल्लू की स्मृति में खो जाती है। उसे लगता है कि उस सुनहरी कली के रूप में वह लघुप्राण (गिल्लू) ही उन्हें चौंकाने के लिए आया है। निहायत संवेदनशील गिल्ल की याद से लेखिका का मन भर आता है।

लेखिका को पहली बार गिल्लू निरीह स्थिति में दिखाई दिया था। वह शायद अपने घोंसले से गिरकर घायल हो गया था और कौवे उस पर अपनी चोंचों से प्रहार कर रहे थे। लेखिका ने कौवों की प्रवृत्ति का उल्लेख करने के लिए ‘छुआ-छुऔवल’ शब्द का प्रयोग किया है। बच्चे आपस में एक-दूसरे को छूने का खेल खेलते हैं, किंतु यहाँ इस शब्द का प्रयोग व्यंग्यात्मक रूप में किया गया है। वास्तव में, कौवे गिल्लू को चोंच मार-मार कर खाने का प्रयास कर रहे थे। वह तो संयोग था कि लेखिका की दृष्टि पड़ी और गिल्लू को बचाया जा सका। यहाँ लेखिका ने कौवों के स्वभाव का वर्णन किया है। वे बताती हैं कि कौवा एक विचित्र प्राणी है। विचित्र इसलिए कि यह जितना तिरस्कार पाता है, उतना ही सम्मान भी पाता है। हम जानते हैं कि कौवा अपने काले रंग व कर्कश आवाज़ के लिए अपमानित होता है, लेकिन पितर पक्ष में उसे अपनेपन के साथ खाना भी खिलाया जाता है। 

हिंदू धर्म में देवी-देवताओं के साथ-साथ अपने पूर्वजों के प्रति भी देवत्व का भाव पाया जाता है। इसीलिए वर्ष में एक बार उनका श्राद्ध-कर्म किया जाता है। भादों के महीने की पूर्णिमा से लेकर क्वार की अमावस्या तक के सोलह दिन पितर पक्ष के रूप में मनाये जाते हैं। ‘पितर’ यानी परिवार के वे सदस्य, जिनकी मृत्यु हो चुकी है और ‘पक्ष’ यानी पूर्णिमा से अमावस्या तथा आमावस्या से पूर्णिमा तक के पंद्रह-पंद्रह दिन (मगर श्राद्ध के संदर्भ में सोलह दिन)। परिवार के दिवंगत सदस्यों की मृत्यु की तिथि के दिन उनका ‘श्राद्ध किया जाता है। इस दिन उनकी स्मृति में ब्राह्मणों को भोज कराया जाता है। ऐसी धारणा है कि पितर कौवे का रूप धरकर घर पर आते हैं, अतः सबसे पहले उनके लिए भोजन निकाला जाता है।

लेखिका ने यहाँ कौवे के लिए ‘काकभुशुंडि’ शब्द का प्रयोग किया है। काकभुशुंडि एक ऋषि थे, जो कौवे थे; जिनकी बुद्धि और ज्ञान की प्रशंसा भारतीय परंपरा में अक्सर की जाती है। कहा जाता है कि रामकथा को कहने वाले चार वक्ता थे और उसे सुनने वाले भी चार थे। इन वक्ताओं में से एक थे काकभुशुंडि, जिन्होंने गरुड़ को रामकथा सुनाई।

अंश-2

आइए पाठ के ‘तीन-चार मास में ……………… उसे कुतरता रहता।’ अंश को एक बार पुनः पढ़ लेते हैं। | 

इससे पहले अंश में हमने देखा कि उपचार के बाद गिल्लू बच गया है। वह अपने सुंदर रूप से सबको चकित कर देता है। अब उसका नामकरण किया गया। उसकी पूरी प्रजाति को गिलहरी कहा जाता है। इसी साम्य पर लेखिका ने उसका नाम गिल्लू रख | दिया। इस प्रकार जो नाम जातिवाचक संज्ञा के रूप में था, वह अब एक प्राणी विशेष के नाम के कारण व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में बदल गया।

लेखिका ने गिल्ल के यौवन का चित्रण संकेत रूप में किया है। वास्तव में, जीवन की | अवधि निश्चित होती है- पहले बचपन आता है, फिर युवावस्था, और उसके बाद बुढ़ापा। | गिल्लू के जीवन में भी किशोरावस्था और युवावस्था आती है और उसके व्यक्तित्व में एकदम से परिवर्तन दिखाई देता है। यह शरीर-विज्ञान की स्वाभाविक प्रक्रिया है और इस प्रकार का शारीरिक परिवर्तन पशु-पक्षियों की भाँति मनुष्य में भी आता है। लड़के-लड़कियों में भी यह शारीरिक परिवर्तन आता है और उस स्थिति में उनके सोचने-समझने के तरीके से लेकर व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं में परिवर्तन आता है। उनमें उन्मुक्तता एवं स्वायत्तता के साथ-साथ गंभीरता और ज़िम्मेदारी का भी बोध होता है |

इस अंश में लेखिका ने इस बात की ओर इशारा किया है कि हमें परोपकारी होना चाहिए और हमारा हृदय विशाल होना चाहिए। परदुखकातरता (दूसरे के दुख से दुखी होना) एक बहुत बड़ा मानवीय गुण है। पशुओं के प्रति दया, सहानुभूति और मैत्री का भाव रखने से वे भी हमारी रक्षा और सुरक्षा का ध्यान रखते हैं। आपने अक्सर देखा होगा कि जब हम किसी पशु को प्यार के साथ रखते हैं, तो वह हमें अपना समझने लगता है और हमारे ऊपर किसी प्रकार की विपत्ति आती है, तो वह भी हमारी बेचैनी में बेचैन और दुख में दुखी में होता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो हमारे अधिकांश साहित्य में इस तरह का चित्रण मिलता है, जैसा कि महादेवी वर्मा ने गिल्लू के संदर्भ में किया है। कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ में जब शकुंतला कण्व ऋषि के आश्रम से विदा होती है, तो उसके वियोग में पशु-पक्षी सभी दुखी होते हैं और खाना तक नहीं खाते । इसे ही समानुभूति कहते हैं, जब किसी और का दुख हमारा दुख बन जाता है। गिल्लू का दुख महादेवी का दुख बन जाता है और जब महादेवी अस्वस्थ होती हैं, उनके दुख में स्वयं गिल्लू खाना नहीं खाता- सारे काजू उसके झूले में यूँ ही ज्यों-के-त्यों मिल जाते हैं। इसका उल्लेख हमें पाठ में आगे मिलता है।

आपने देखा होगा कि कुछ पशु या पक्षी अगर आपसे घुल-मिल जाते हैं, तो अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कर प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। लेखिका के साथ भी ऐसा ही होता है। गिल्लू उससे निकटता प्राप्त करने के लिए उछल-कूद करता है। कभी वह तेजी से परदे पर चढ़ जाता है, कभी लिफाफे में बंद हो जाता है। यह क्रिया हमें भी गिल्लू के प्रति सहृदय तथा आत्मीय बना देती है। ऐसा लगता है, जैसे हम किसी बच्चे के साथ खेल-कूद कर रहे हों और वह अपनी मोहक अदाओं से हमें प्रभावित करने का प्रयास कर रहा हो। इस अंश में लेखिका ने उसके नटखटपन का भी सहज चित्रण किया है, जो अत्यंत आकर्षक लगता है।

इस अंश में लेखिका ने यह भी संकेत किया है कि पशु भी अपनी भाषा में अपने दुख-सुख का आभास कराते हैं। हम उनकी भाषा को उनके संकेतों के आधार पर अथवा उनके हाव-भाव के द्वारा समझ सकते हैं। वे या तो किसी प्रकार की आवाज़ निकालते हैं अथवा क्रियाओं के माध्यम से संकेत करते हैं। गिल्लू के चिक-चिक करके अपनी भूख मिटाने की इच्छा जाहिर करने की प्रक्रिया का लेखिका ने बड़ी सजीवता और सहजता के साथ चित्रण किया है।

इस अंश में लेखिका ने गिल्लू के तीन महीने के हो जाने पर उसमें आने वाले शारीरिक और व्यवहारगत परिवर्तन का बड़ा सुंदर और सांकेतिक चित्रण किया है। आप जानते ही होंगे कि प्राणीमात्र बचपन, जवानी और बुढ़ापे के सोपानों से गुजरता है। जिस प्रजाति की जितनी जीवन-अवधि होती है, उसी के हिसाब से उसके जीवन में इन तीनों की अवधि भी निर्धारित होती है। गिलहरियों का कुल जीवन दो वर्ष का होने के कारण उनमें तीन-चार माह में जवानी के लक्षण आने लगते हैं। | 

गिल्लू के रोओं का चिकना होना, पूंछ का झब्बेदार होना और आँखों की चंचलता उसमें | आए शारीरिक परिवर्तन हैं।

लेखिका ने गिल्लू के कमरे के बाहर और भीतर झाँकने का जिक्र किया है, जिसके द्वारा | वे संकेत करना चाहती हैं कि गिल्लू इस संसार की विचित्र संरचना (बनावट) पर | सोच-विचार करने लगा है। इस उम्र में आकर सभी के भीतर बदलाव की स्थिति आती है- पशु-पक्षियों में भी और मनुष्य में भी। किशोर-किशोरियों के मन में अनेक तरह की | जिज्ञासाएँ होती हैं और वे उनका समाधान करने का प्रयास करते हैं। गिल्लू का लेखिका | को चौंकाने का प्रयास करना, पर्दे पर सर्र से चढ़ना-उतरना आदि इसी प्रकार की | क्रियाएँ हैं। अपनी समझदारी को वह जिस रूप में अभिव्यक्त करता था, वह लोगों को आश्चर्य में डालने वाला था। वह लेखिका के साथ इस प्रकार से व्यवहार करता था, जैसे | कोई मनुष्य करता है। इससे इस बात का भी पता चलता है कि पशु-पक्षियों में भी मनुष्य की भाँति महसूस करने की शक्ति होती है।

अंश-3

 ‘फिर गिल्लू के जीवन का …… सोनजुही की पत्तियों में आइए’ तक के अंश को एक बार फिर पढ़ते हैं। 

लेखिका ने गिल्लू के प्रथम बसंत की बात की है। जीवन का पहला बसंत प्रतीकात्मक प्रयोग है। हमारा जीवन बहुत कुछ ऋतुओं से भी जुड़ा हुआ है। आपने अक्सर महसूस किया होगा कि गर्मी, सर्दी और बरसात के मौसम का हम पर अलग-अलग रूपों में प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार, बसंत ऋतु का हमारे जीवन में अलग ही महत्व है। यह ऋतु हमारे जीवन में उल्लास भर देती है। बसंत ऋतु प्रकृति और मानव-जगत के नवीन विकास की प्रेरक है। आपने देखा होगा कि बसंत में पेड़-पौधों और लताओं में नवीन कोंपलें उग आती हैं। उनमें फूल आते हैं। फूलों के पराग कण, दरअसल, उनके बीज होते हैं, जिनसे उस तरह के फूलों के नए पौधे विकसित होते हैं। कुछ वृक्षों-लताओं में ये फूल फल में परिवर्तित हो जाते हैं। फल भी अपने भीतर बीजों को छिपाए होते हैं। तो इस तरह, बसंत प्रकृति की संतति-परंपरा को विकसित करने वाली ऋतु है। इसका प्रभाव प्राणी-जगत, विशेषकर मनुष्य पर भी पड़ता है। इस ऋतु में स्त्री-पुरुष का परस्पर आकर्षण बढ़ जाता है।

लेखिका ने गिल्लू के माध्यम से पशुओं के भीतर पनपने वाले उस मूल भाव की ओर संकेत किया है, जब गिल्लू बड़ा होकर आजाद जीवन बिताने की इच्छा रखने लगता। उम्र का यह पड़ाव मानव-जगत को ही नहीं, पशु-जगत को भी आजादी की ओर प्रेरित करता है। युवावस्था प्राप्त करने वाला गिल्लू अब जाली से बाहर निकल कर मुक्ति के वातावरण में विचरण करना चाहता है।

मुक्ति की आकांक्षा मनुष्य ही नहीं, समस्त प्राणी-जगत का मूल भाव है। संसार का कोई भी प्राणी बँधकर रहने में स्वाभाविक विकास नहीं कर पाता। आपने यह महसूस किया होगा कि आप जब किसी पालतू पशु को बाँध देते हैं या कमरे में बंद कर देते हैं, तो वह घुटन महसूस करने लगता है और उससे मुक्ति का प्रयास करता है। कई बार तो कुत्ते या कुछ बड़े पशु उस बंधन को तोड़ने के लिए आक्रामक भी हो जाते हैं । 

इसीलिए, लेखिका गिल्लू के भीतर उठने वाली मुक्ति की आकांक्षा की आहट पाते ही उसे जाली के बंधन से मुक्त कर देती है और गिल्लू अन्य गिलहरियों के साथ अपना अंतरंग | संबंध स्थापित कर लेता है। किंतु, इस बीच भी वह लेखिका के स्नेह को भूल नहीं पाता और उसके कॉलेज से लौटने पर वह लेखिका के सिर से पैर तक दौड़धूप करना नहीं छोड़ता। लेखिका ने इस अंश में यह संकेत किया है कि पशु-जगत के प्रति प्रेम का व्यवहार होने पर वे भी वैसा ही व्यवहार करते हैं और उसे अपने | क्रिया-कलापों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। यह सहज स्वभाव पशु-जगत अथवा मानवेतर प्राणियों में भी वैसा ही होता है, जैसा कि मानव-जगत में।

मुक्ति की भावना में प्राणी की पहचान भी छिपी होती है। मुक्ति मिलते ही उसके व्यक्तित्व के भीतर की चेतना जगने लगती है। लेखिका हमें गिल्लू के माध्यम से यह अहसास कराती है। आपने इस पाठ में पढ़ा है कि जैसे ही गिल्लू बंधन से मुक्त होता है, उसमें नेतृत्व की क्षमता आ जाती है। वह गिलहरी-समाज का नेता बन जाता है। उसमें आत्मविश्वास भर जाता है और इसे वह डाल-डाल पर उछल-कूद कर अभिव्यक्त | करता है। इस प्रकार, लेखिका ने यहाँ बंधन और मुक्ति के अंतर को भी हमारे सामने स्पष्ट कर दिया है। इस अंश में लेखिका ने मुक्ति को ही उचित बतलाया है अर्थात् हमारी सार्थकता इस बात में है कि हम मुक्ति का वरण करें, न कि बंधन का; क्योंकि | मुक्ति हमें स्वावलंबी बनाती है और बंधन परावलंबी। मनुष्य की सार्थकता भी मुक्त होने | में है, लेकिन हमारी मुक्ति दूसरों की मुक्ति के साथ जुड़ी है; वह निरपेक्ष नहीं है। | गिल्लू अपनी आज़ादी का तो उपयोग करता है, पर लेखिका के समय के सामंजस्य के साथ!

महादेवी ने गिल्लू को मुक्त करने की बात कही है। वे जाली खोलकर उसे मुक्त करती हैं, तो वह अपने समूह की गिलहरियों से मिलता है। उसके व्यक्तित्व में एक प्रकार का बदलाव आता है और उस बदलाव की अभिव्यक्ति वह विभिन्न रूपों में करता है। इस प्रकार का बदलाव पशु-पक्षियों में ही नहीं, मनुष्य में भी आता है। किशोर-किशोरियाँ समूह में रहकर अपनी भावनाओं को व्यक्त करना चाहते हैं और किसी प्रकार की रोक-टोक स्वीकार नहीं करना चाहते।

अंश-4

आइए, पाठ के ‘मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं …………ठंडक में भी रहता।’ तक के अंश को एक बार फिर से पढ़ लेते हैं। 

महादेवी वर्मा को अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों को पालने का शौक था। लेखिका को न केवल शौक था, अपितु उनके प्रति अपार करुणा और स्नेह का भाव भी था। वे सभी के प्रति समान स्नेह का व्यवहार करती थीं। किंतु, गिल्लू उनके लाड़-प्यार का विशेष अधिकारी था। यही कारण था कि वह महादेवी वर्मा की भोजन की थाली में सीधे मुँह लगाकर खाना खाने लगता है। अन्य पशु-पक्षी ऐसा व्यवहार नहीं करते थे, इसीलिए गिल्लू एक अपवाद था। उसके विशिष्ट व्यवहार और क्रियाकलापों की वजह से लेखिका उसे खाने के लिए तो नहीं रोकती, पर उसे इस तरह का संस्कार प्रदान करना चाहती है, जिससे वह एक सभ्य और सुसंस्कृत जीव के रूप में व्यवहार करे। इसीलिए, लेखिका उसे धीरे-धीरे थाली में ही निकालकर खाना सिखाती है और वह उसी के अनुरूप चावल का एक-एक दाना उठाकर खाने लगता है। वह बहुत सफाई से खाता है। एक दाना भी ज़मीन पर नहीं गिराता। 

गिल्लू के खाने का अंदाज़ भी अलग था और उसकी रुचि भी विशिष्ट थी। वह खाने में काजू विशेष रूप से पसंद करता था। काजू न मिलने पर या तो वह बाकी चीजें खाता ही नहीं था या उन्हें अपने झले से नीचे फेंक देता था। किशोरावस्था में आपने अक्सर महसूस किया होगा कि यदि किसी को उसकी रुचि की कोई चीज़ मिल जाती है, तो उससे उसे प्रसन्नता होती है। यदि जो चाहिए, वह नहीं मिलता, तो मन खिन्न हो जाता है। आपने गिल्लू के संदर्भ में भी देखा कि वह किस प्रकार काजू न मिलने पर नाराज़ होता था। नाराज़ होने की आदत केवल मनुष्यों में ही नहीं होती, पशु और पक्षियों में भी दिखलाई पड़ती है। इस प्रकार, लेखिका ने यहाँ जीव-मनोविज्ञान का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है।

पशुओं को शिष्टाचार का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि उनकी दुनिया में यह सब नहीं है; किंतु लेखिका ने उसे शिष्टाचार सिखा कर उसे भी मानवीय व्यवहार से अवगत कराया। लेखिका ने यह भी संकेत किया है कि सामान्य शिष्टाचार का व्यवहार सबके लिए | अपेक्षित है। किशोर-जीवन में उन्मुक्तता की आकांक्षा होती है, किंतु वह निरंकुश या असंयमित नहीं होनी चाहिए।

प्रेम ऐसा भाव है, जो हमें महान बनाता है। लेखिका की अस्वस्थता में गिल्लू का उनके बालों को हौले-हौले सहलाना प्रेम की उत्कृष्टता का अनुपम नमूना है। गिल्लू का यह सेवा-भाव हमें विस्मित करता है और उसे हम अपना आत्मीय पात्र मानने लगते हैं।

अभी तक तो आपने गिल्लू की रुचि-अरुचि के बारे में पढ़ा। आइए, अब देखें कि गिल्लू विकसित होने वाली संवेदनशीलता और समानुभूति को बड़ी मार्मिकता के साथ चित्रित किया है। लेखिका को मोटर-दुर्घटना में चोट लग जाती है और कुछ दिनों के लिए उसे अस्पताल में रहना पड़ता है। इस बीच गिल्लू बहुत उदास और असहाय महसूस करता है, क्योंकि जो आत्मीयता एवं प्यार उसे लेखिका देती थी, वह किसी अन्य से नहीं मिलता। लेखिका का कमरा खुलने पर वह दौड़ता है, किंतु उसे न पाकर वह वापस अपने झूले पर जाकर बैठ जाता है। यहाँ तक कि लोग उसे काजू खाने के लिए | देते हैं, जो उसके खाने की सबसे प्रिय वस्तु थी, पर वह उन्हें भी जस-का-तस छोड़ | देता है। इस अंश में गिल्लू मानवता की उस ऊँचाई को छू लेता है, जो आज के समय में मनुष्य में भी शायद धीरे-धीरे कम हो रही है।

इस अंश के माध्यम से लेखिका (मनुष्य) और गिल्लू (पशु) के बीच पनपने वाले प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। इस प्रकार के वर्णन से लेखिका ने पशु के भीतर ऐसी मानवीय | संवेदना और ऊँचाई भर दी है, जिससे एक छोटा-सा जीव महानता का अधिकारी बन | जाता है और हमारे दिल को छू जाता है। मनुष्य और मनुष्येतर प्राणी के बीच विकसित होने वाले प्रेम की इस रेखाचित्र में अद्भुत अभिव्यंजना हुई है। बीमारी के समय लेखिका के सिरहाने बैठकर अपने छोटे पंजों से उसके बालों और सिर को सहलाने की क्रिया गिल्ल के भीतर छिपे उस भाव को व्यक्त करती है, जिसमें दख के समय मनष्य और मनुष्येतर का भाव मिट जाता है। दोनों एक समान भाव-भूमि पर स्थित हो जाते हैं और दोनों का दुख एक जैसा हो जाता है। इसी प्रकार, गर्मियों में लेखिका की निकटता प्राप्त करने के लिए वह ऐसा अनोखा तरीका निकाल लेता है, जो अपनी संवेदना में हमें गुदगुदाता है। उसके प्रति हम सहज ही आकर्षित हो जाते हैं। वह हमारा बन जाता है और हम उसके । पशु-पक्षी अपनी समस्याओं का समाधान भी खुद ढूँढ लेते हैं। गिल्लू | का सुराही के ऊपर लेट जाना इसी बात का प्रतीक है। वह गर्मी से राहत भी पा लेता है और लेखिका से निकटता भी।

अंश-5

आइए, अब हम इस पाठ के शेष अंश ‘गिलहरियों के जीवन …….. से ……… विश्वास मुझे संतोष देता है।’ अर्थात् अंतिम अंश को एक बार फिर पढ़ लेते हैं। 

पिछले अंश में लेखिका ने गिल्लू के जीवन के विविध पक्षों का सुंदर चित्रण करते हुए उसके व्यक्तित्व के विभिन्न महत्त्वपूर्ण पहलुओं को रेखांकित किया है। पाठ के अंतिम अंश में लेखिका ने गिल्लू के जीवन की अंतिम अवस्था का जिक्र किया है। इस पाठांश में लेखिका के जीवानानुभव का हमें पता चलता है, जिसमें वह मानवेतर जगत के बारे में गहरी मानवीय दृष्टि का परिचय देती है। उसने इन प्राणियों के विविध क्रियाकलापों के सुंदर चित्रण के साथ यह भी बताया है कि गिलहरी की कुल जीवन-अवधि दो वर्ष की होती है। लेखिका को यह आभास हो गया था कि अब गिल्लू की उम्र पूरी हो चुकी | है और अब वह बूढ़ा ही नहीं, बल्कि मृत्यु के निकट पहुँच चुका है। गिल्लू के ठंडे पंजों | की पकड़ से लेखिका को उसके विछोह अर्थात् विदा होने का आभास हो जाता है। उसने उसे ठंडक से बचाने के लिए हीटर जलाकर गरमाहट देने का प्रयास किया, किंतु वह तो अब जीवन की अंतिम साँस ले रहा था और प्रातःकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया। | गिल्लू की जीवन-अवधि बहुत सीमित थी- कुल दो साल की। इसीलिए, जब उसके जीवन का अंत समय आया तो लेखिका के मन में उसके प्रति प्रेम ही नहीं, उसके बिछुड़ने का दर्द भी प्रकट हो उठा है। इस छोटे से जीवन में वह लेखिका को इतना प्रभावित करता है कि उसकी स्मृति उसके लिए अविस्मरणीय हो जाती है।

हम किसी की याद को यादगार बनाए रखने के लिए समाधि बनाते हैं। आपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी आदि की या कोई अन्य समाधि देखी होगी। गिल्ल की याद में लेखिका ने सोनजही की लता के बीच एक समाधि बनवाई, क्योंकि गिल्लू को सोनजुही की लता सबसे अधिक प्रिय थी।

उसकी मृत्यु के पश्चात् लेखिका ने उसका झूला उतरवा कर रखवा दिया और खिड़की की जाली भी बंद करवा दी, जिससे बाहर निकलकर वह अन्य गिलहरियों से मिलने-जुलने जाया करता था। इस अंश में लेखिका और गिल्लू के बीच आत्मीय भाव और वियोगजन्य उदासी का सुंदर चित्रण मिलता है। गिल्लू का दो वर्ष का साथ लेखिका के जीवन को इस कदर प्रभावित करता है कि वह उसके असहनीय वियोग | से दुखी होती है। उसकी स्मृति को अपने मन में स्थायी बनाए रखने के लिए वह गिल्लू की समाधि वहीं बनवाती है, जहाँ वह छाया में छिपकर बैठता था और अचानक लेखिका | के ऊपर कूदकर उसे चौंका देता था। अपने इस छोटे से जीवन में गिल्लू ने लेखिका के ऊपर ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि वह उसकी स्मृति को कभी नहीं भुला सकी।

जुही के उस पीले फूल में लेखिका को बार-बार ऐसा आभास होता है कि कहीं फूल के रूप में गिल्लू ही तो नहीं प्रकट हुआ? गिल्लू की यह अविस्मरणीय (कभी न भूलने वाली) याद उसकी स्मृति को हमेशा के लिए सजीव बना देती है- लगता है कि हमारी आँखों के सामने जीता-जागता गिल्लू उछल-कूद करते हुए हमें जीवन में सक्रिय रहने की प्रेरणा दे रहा है। लेखिका ने गिल्लू की मृत्यु का भी बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है। आमतौर पर हम अपने किसी बहुत ही प्रिय की मृत्यु के बाद यह नहीं कहते कि ‘वह मर गया’ या ‘वह मर गयी’। सामान्य शिष्टाचार और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में भी हम उसके लिए इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे-‘वे हमेशा हमेशा के लिए सो गये’, ‘भगवान | को प्यारे हो गये’, ‘हमें छोड़कर चली गई’, ‘उनका स्वर्गवास हो गया । लेखिका ने प्रेम के वशीभूत होकर ही गिल्लू के लिए यह वाक्य प्रयोग किया है-‘वह किसी और जीवन में जागने के लिए सो गया।

भाषा-शैली

आइए, अब हम इस रेखाचित्र की भाषा-शैली की विशेषताओं पर विचार करते हैं। इस रेखाचित्र के विषय में आपने यह महसूस किया होगा कि इसे पढ़ना शुरू करें तो पूरा पढ़ जाने की इच्छा होती है। क्या आपने सोचा कि ऐसा क्यों हुआ? वास्तव में इसका एक कारण यह है कि यह रेखाचित्र रोचक तो है ही, इसकी भाषा भी बहुत ही सरल, सरस और प्रवाहपूर्ण है। लेखिका ने इसमें आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है अर्थात्, हमारे दैनिक जीवन में जिन शब्दों का प्रयोग होता है, उन्हीं शब्दों का प्रयोग लेखिका ने किया है। इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग भी है, इसके अतिरिक्त आम बोलचाल में आने वाले अंग्रेज़ी एवं अन्य भाषाओं के कुछ शब्द भी हैं। ये सभी शब्द इस रेखाचित्र में सहज रूप में आ गए हैं। इसीलिए भाषा में स्पष्टता बनी रहती है।

इस रेखाचित्र की भाषा की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता है- सरसता। इसका मतलब यह है कि इसकी भाषा में ऐसी अभिव्यक्तियों और वाक्यांशों का प्रयोग किया गया है, जिससे पढ़ते समय आनंद की अनुभूति होती है। सरसता का गुण न होने के कारण हम किसी पाठ को थोडा-सा पढने के बाद ही ऊब जाते हैं और उसे पढने में अरुचि और आलस्य होने लगता है। लेकिन, ‘गिल्लू’ को पढ़ते समय हमें इस प्रकार का बोध बिल्कुल नहीं होता। हमारे समक्ष गिल्लू के रूप-रंग, व्यवहार और गतिविधियों के चित्र उभरने लगते हैं और हम जैसे खुद ही इन दृश्यों को देखने वाले बन जाते हैं। हमारा मन कभी लेखिका, तो कभी गिल्लू की अनुभूति के साथ जुड़ जाता है। हम उनके दुख से दुखी और उनकी प्रसन्नता में खुश होने लगते हैं।

इसकी भाषा की तीसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता है- प्रवाहपूर्णता अथवा प्रवाहमयता। प्रवाहपूर्णता भाषा का वह गुण है, जो किसी रचना को हमें निरंतरता में पढ़ने के लिए बाध्य कर देता है। जैसे नदी में पानी का प्रवाह होता है, वैसे ही भाषा में भी प्रवाह होता है। यह प्रवाह शब्दों के चयन और उनके सटीक प्रयोग से आता है। महादेवी वर्मा ने भाषा के इन पक्षों का ध्यान रखा है, इसीलिए उनकी भाषा में प्रवाह आ गया है। इस रेखाचित्र की शैली कुछ आत्मकथात्मक-सी है। वास्तव में, जब लेखक अपने अविस्मरणीय क्षणों के अनुभव को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करता है, तो वह आत्मकथात्मक-सा ही होता है। आत्मकथात्मक शैली का मतलब होता है, अपने अनुभव को इस प्रकार व्यक्त करना कि उसमें अपना व्यक्तित्व भी आ जाए। कई बार हम बात किसी और के बारे में करते हैं, किंतु उसके माध्यम से अपनी बात भी व्यक्त हो जाती है |

रेखाचित्र में लेखक शब्दों के माध्यम से किसी वस्तु या व्यक्ति का एक चित्र प्रस्तुत | करता है और अपनी भाषा-शैली के कौशल से उसे जीवंत बना देता है। उसके शब्दों और वर्णन-शैली में इतनी कलात्मकता होती है कि हमारी आँखों के सामने उस वस्तु या व्यक्ति का समग्र चित्र उपस्थित हो जाता है । इस रेखाचित्र में भी लेखिका महादेवी वर्मा ने एक कुशल चित्रकार के समान छोटे-छोटे चित्रों से गिल्लू का चित्रण करते हुए उसके | भीतर छिपी संवेदनाओं को प्रभावशाली रूप में व्यक्त किया है। इस रेखाचित्र में उनकी | शैली भावात्मक और विचारात्मक दोनों रूपों में मिलती है। पशु-प्रवृत्ति के संबंध में उनकी निरीक्षण-दृष्टि सराहनीय है।

गिल्लू जैसे उपेक्षित प्राणी के चित्र को अपने असीम स्नेह | से रँगकर लेखिका ने इस प्रकार व्यक्त किया है कि हम उससे एक गहरी आत्मीयता का अनुभव करने लगते हैं। | आपने ध्यान दिया होगा कि इस रेखाचित्र की शुरुआत सोनजुही की लता में खिले पीले | फूल से हुई है। इसे देखते हुए लेखिका को गिल्लू की याद आती है, जो अब दिवंगत हो चुका है। फिर वह उसके मिलने के दिन से मृत्यु तक की बातों का स्मरण करती है। अंत में पुनः उसी दृश्य से वर्तमान समय में लौटती है। इस प्रकार, पीछे लौटने के तरीके को साहित्य और फिल्म की भाषा में ‘फ्लैश बैक टेक्नीक’ यानी ‘पूर्वदीप्ति तकनीक’ कहा जाता है। इस रेखाचित्र में इस तकनीक का बहुत सुंदर उपयोग किया गया है।